गुजरात.आज भी अनेक गांव-शहर ऐसे हैं, जहां अंधेरे में महिलाओं के घर से निकलने पर पाबंदी है। ऐसे में कुछ साहसी महिलाएं हैं, जो सुबह होने से पहले ही परिवार के लिए खुशियों का उजियारा बटोर लाती हैं। ये पुरुषों के प्रभुत्व वाले अखबार वितरण के क्षेत्र में उतरकर घर के हालात बदल रही हैं या बदल चुकी हैं। इनकी संख्या बहुत कम है। मसलन गुजरात में कुल न्यूजपेपर हॉकर्स की संख्या 2700 है। इनमें महिलाएं सिर्फ 30 हैं। उम्र 23 से 74 साल के बीच है।
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2006 में पति एक्सीडेंट में अपाहिज हो गए। इलाज और दो बेटों की पढ़ाई का जिम्मा मुझ पर आ गया। एमए बीएड हूं। टेलिफोन ऑपरेटर थी। नौकरी छोड़नी पड़ी। अखबार बांटना शुरू किया। शुरुआत में मुश्किलें आईं। 12 साल से काम कर रही हूं। कोई छुट्टी नहीं की- रिश्तेदार की मृत्यु के दिन भी अखबार बांटे। बच्चे इंजीनियर बन गए हैं।’-अंजलि (51), अहमदाबाद
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‘मैं 20 साल की थी, जब मेरी बहन के पति कैंसर से चल बसे। उनके चार बच्चे थे। उनमें से दो की बीमारी से मौत हो गई। इन बच्चों को पढ़ाने मैंने पेपर बांटना शुरू किया। शादी नहीं की। गांव वाले मजाक उड़ाते थे। आसपास के गांवों में साइकिल से जाती हूं। नक्सल इलाका होने से शुरू-शुरू में डर लगता था, इसलिए पिता को साथ लेकर जाती थी। कुछ दिनों बाद अकेले जाने लगी। अब 9 साल हो गए हैं। अब बहन का बड़ा बेटा जनपद में सीईओ है। छोटा एमएमसी कर रहा है।’ –रेवती (29), केशकाल, रायपुर
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‘मैं 18 साल से अखबार बांट रही हूं। तब बीमारी की वजह से मेरे पति का ऑपरेशन हुआ था और घर के हालात बिगड़ गए। पति भी यही काम करते थे, इसलिए मुझे काम आसान लगा। रिश्तेदार और पड़ोसी कहते थे कि यह महिलाओं का काम नहीं है। अब 18 साल बाद वही लोग जो मुझे रोकते थे, अब पीठ थपथपाते हैं।’-सुकेशनी (40), औरंगाबाद
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”63 साल की हूं। घर-घर अखबार पहुंचाती हूं। ये काम मैं तब से कर रही हूं, जब अखबार 12 आने में आता था। बात 40 साल पहले की है। पति अंबालाल की मौत के बाद मैंने आत्मनिर्भर बनने को यह काम शुरू किया। तब मैं अकेली महिला हॉकर थी। सुबह 3 बजे जागकर पहले रसोई का काम करती, फिर अखबार लेने रेलवे स्टेशन जाती। 300 पेपर का बंडल सिर पर रख कर लाती और बांटती। तीन बच्चों की परवरिश इसी पेशे से की। आगे काम जारी रखूंगी।”-कोकिला अंबालाल क्रिश्चन (63), अहमदाबाद