आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस रिसर्च में अमेरिका की कॉपी

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अमित कुमार निरंजन, नई दिल्ली . अंतरिम बजट में केन्द्र सरकार ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) पर एक नेशनल प्रोग्राम लॉन्च करने की घोषणा की है। जबकि एआई पर रिसर्च कर रहे छात्रों को सरकार से डेटा ही नहीं मिल पाते हैं। छात्रों को अमेरिकी डेटा पर निर्भर रहना पड़ता है। यही वजह है कि भारत में एआई के अधिकांश प्रोजेक्ट अमेरिका के प्रोजेक्ट्स की कॉपी हैं। जबकि बोस्टन कन्सल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) स्टडी के मुताबिक एआई आधारित इंजीनियरिंग और इंडस्ट्रीज प्रोडक्ट बनाने में भारत का स्थान तीसरा है।

एआई प्रोडक्ट्स में अमेरिका की 25 फीसदी, चीन की 23 फीसदी और भारत की 19 फीसदी हिस्सेदारी है। रोबोटिक्स विशेषज्ञ और एआईसीटीई के पूर्व चेयरमैन डॉ एसएस मनथा ने बताया कि डेटा दो तरह से इकट्ठा होता है- एक मैन्युअल यानी किसी यंत्र की गणना से और दूसरा सेंसर से। हमारे यहां ये दोनों ही डेटा ठीक से नहीं मिल पाते। एआई में पूरा काम डेटा का ही है। छात्र अमेरिका के डेटा पर निर्भर हैं। अमेरिका की अपेक्षा हमें 10 फीसदी से भी कम डेटा उपलब्ध हो पाता है। सरकार को अगर एआई को और बेहतर बनाना है तो अपनी कई जानकारियां सार्वजनिक करनी पड़ेंगी।

ट्रिपल आईटी हैदराबाद के प्रोफेसर और एआई के विशेषज्ञ राजीव संगल ने बताया कि अभी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का उपयोग बहुत सामान्य चीजों के लिए हो रहा है। जैसे किसी कस्टमर ने नीले रंग का शर्ट खरीदा तो उसे कौन-सा पाउडर बेचा जाए। ऐसे इस्तेमाल से मानव का भला नहीं होने वाला है। एआई कोई नई चीज नहीं करती है वह सिर्फ पुरानी को और बेहतर बनाती है। अगर डेटा उपलब्ध होता है तो एआई से कई तरह के काम लिए जा सकते हैं।

एक ऑटोमोबाइल कंपनी के इमरजिंग टेक्नोलॉजी और इनोवेशन टीम के लीडर ने बताया कि हमारा मौजूदा एजुकेशन सिस्टम इतना अपग्रेड नहीं हुआ है कि हम एआई पर ज्यादा काम कर सकें। इसके अलावा देश में जितने भी एआई के प्रोजेक्ट हो रहे हैं वो अमेरिकी प्रोजेक्ट की कॉपी होते हैं। उदाहरण के लिए वहां ड्राइवरलेस कार पर काम चल रहा है, यह प्रोजेक्ट वहां इसलिए सफल है, क्योंकि वहां ड्राइवर का मेहनताना बहुत है और उससे कम निवेश में कंपनियां ड्राइवरलेस कार बनाकर दे रही हैं।

लेकिन हमारे यहां लेबर या ड्राइवर आसानी से और सस्ते में उपलब्ध हैं, इसलिए ड्राइवरलेस कार के प्रोजेक्ट की हमारे यहां अभी जरूरत नहीं है। इसी तरह जापान में भी रोबोट्स से काम लिया जाता है, क्योंकि वहां लेबर बहुत महंगा है। इसरो के कम्युनिकेशन हेड विवेक सिंह ने बताया कि इसरो के सैटेलाइट या रॉकेट सब कुछ बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के 10-15 साल काम करते हैं। बेशक जमीन से इन पर नियंत्रण रखा जाता है और तमाम गतिविधियों को मशीनी स्तर पर संचालित किया जाता है। ये सब कुछ सेंसर, रडार और आईसी सर्किट जैसी मशीनों के जरिए ही होता है। जिसे हम एआई कहते हैं।

देश में एआई जो बदल सकता है

  • एआई से डाटा के विश्लेषण के माध्यम से फ्लड प्रेडिक्शन किया जा सकता है।
  • कुंभ जैसी जगहों पर क्राउड मैनेजमेंट कर सकते हैं। इसके लिए बहुत डेटा की जरूरत होगी।
  • 22 भारतीय भाषाओं का अनुवाद एक-दूसरे के साथ किया जा सकता है। अभी पब्लिकेशन क्वालिटी गूगल के पास भी नहीं है, जिसमें मानवीय रूप से एडिटिंग करनी पड़ती है।
  • एआई की मदद से सेल्फ ग्रोन ऑर्गन बनाए जा सकेंगे जो आपके शरीर में अपने आप उग सकेंगे।
  • मानव संसाधन मंत्रालय के इनोवेशन सेल के डायरेक्टर डॉ. मोहित गंभीर ने बताया कि एआई कृषि में बहुत बड़ा योगदान देगी। अभी पूरी फसल पर पानी छोड़ा जाता है, लेकिन एआई से मिट्‌टी की नमी, पानी की जरूरत और फसल को ध्यान में रखते हुए मशीन बता देगी कि पानी कब, कितना और कहां छोड़ना है।

लेकिन इसमें यह दिक्कत है

  • एआई ज्यादातर आईआईटी और एनआईटी में एक सब्जेक्ट के तौर पर ही पढ़ाया जा रहा है। अभी केवल ट्रिपल आईटी हैदराबाद ही एआई का हब है, जहां सबसे ज्यादा 20 फैकल्टी एआई की हैं।
  • अभी सबसे बड़ी दिक्कत फंड और डेटा इकट्‌ठा करने में आती है। एक जीपीयू (ग्राफिक प्रोसेसिंग यूनिट) कम्प्यूटर एक करोड़ से लेकर 20 करोड़ तक में आता है। ये देश में बहुत कम संस्थाओं के पास हैं।
  • हमारे देश में कई चीजें डॉक्यूमेंट या डेटा के तौर पर नहीं रखे जाते हैं।
  • इंजीनियरिंग के कोर्स अपडेट होने हैं। एआईसीटीई के वाइस चेयरमैन एमपी पूनिया के मुताबिक ‘इंडस्ट्री 4.0’ (औ‌‌द्योगिक क्षेत्र में 2016 से आने वाले समय को दिया गया नाम) की जरूरत को ध्यान में रखते हुए अगले सत्र से दस नए कोर्स शुरू करेंगे। पुराने कोर्सेस का ही ढांचा बदला जाएगा।

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America’s Copy in Artificial Intelligence Research

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