रिपोर्टर पुरूषोतम चर्तुवेदी
वाराणसी : काशी की पहचान सिर्फ धार्मिक और सांस्कृतिक ही नहीं है अपितु यह तो अपने खान-पान के लिए भी जाना जाता है। संस्कृति से जुड़े पारंपरिक खानपान के इसी निराले स्वाद को पिछले 26 सालों से बाटी चोखा रेस्टोरेंट लोंगो तक पहुंच रहा है। 25 फरवरी 1999 को बाटी चोखा को रेस्टोरेंट में लाने की शुरुआत हुई। पिछले कई सालों से इस दिन को ‘बाटी चोखा डे’ के रूप में मनाया जा रहा है।आज ‘बाटी चोखा डे’ है और हम बाटी चोखा रेस्टोरेंट की 26 वीं वर्षगांठ

मना रहे हैं। इस खास दिन को और भी खास बना दिया बनारस की पौराणिकता और उसके इतिहास को बताती एक लघु फ़िल्म के प्रदर्शन ने, जिसका नाम है दिव्य बनारस। फ़िल्म में भगवान शंकर के काशी चुनने की कहानी तो है ही इसके अलावा रावण की लंका और बनारस से उसके संबंध के बारे में बताया गया है। कुल मिलाकर कहे कि बनारस के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को दर्शाती हुई फ़िल्म लोगों को बनारस से जोड़ती हुई दिखी। बाटी चोखा डे के इस मौके पर मैनेजमेंट में अपने बनारस , कलकत्ता , लखनऊ अहरौरा स्थित सभी रेस्टोरेंट के बेस्ट इम्प्लाई को उत्कृष्टता सम्मान से सम्मानित भी किया गया ।
आसान नही था बाटी चोखा के ठेले से रेस्टोरेन्ट में आने का सफ़र
बेहद पौष्टिक और स्वादिष्ट होने के बावजूद बाटी चोखा गरीबों के भोजन का अभिप्राय बन गया था। यह व्यंजन बाजार में सिर्फ़ ठेलों तक सीमित रह गया। रेस्टोरेंट और 5 स्टार होटलों के बदलते दौर में इसे वहां स्थान नहीं मिला जबकि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और दूसरे देश से आए व्यंजनों को इन रेस्टोरेंट और होटल में बड़ी जगह मिली । यह बात बनारस के कुछ लोगों को बेहद खलती थी और आपस में चर्चा भी करते थे लेकिन इससे चुनौती लेने की ताकत का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। क्योंकि यह एक बड़ा जोखिम भरा काम था। लेकिन सन 1999 में बनारस ही नहीं बल्कि पूर्वांचल के इस पौष्टिक बाटी चोखा के स्वाद को बड़े फलक तक ले जाने का बीड़ा एक शख्स ने उठाया, जिसका नाम सिद्धार्थ दुबे था।सिद्धार्थ दुबे ने पहले होम डिलेवरी शुरू की,फिर बाटी चोखा के साथ मल्टी कूजीन रेस्टोरेंट खोला. लेकिन कुछ ही दिनों में दूसरे व्यंजनों की चमक में बाटी चोखा दब गया. ऐसा होता देख मैनेजमेंट ने दूसरे सभी व्यंजनों को बंद कर, इसका नाम ही बाटी चोखा रेस्टोरेंट रख दिया. और उसी दिन से बाटी चोखा रेस्टोरेन्ट में सिर्फ़ बाटी चोखा ही परोसा जाता है। शुरुआती दिनों में इसमें कई तरह के चैलेंज आए। बहुत से परिवार के लोग अपने बच्चों के साथ आते थे। जिसमें बड़े बुजुर्गों को तो बाटी चोखा का स्वाद पसंद था लेकिन बच्चे चाऊमीन मोमो और चिली पनीर जैसे व्यंजनों के डिमांड करते थे। अपने सिद्धांत से बंधा बाटी चोखा रेस्टोरेंट उन बच्चों के इस डिमांड को पूरा नहीं कर पाते थे तो पूरा परिवार रेस्टोरेंट से चला जाता था। रेस्टोरेंट के कर्मचारियों से लेकर परिचित मित्र सभी कहते थे की कम से कम बच्चों के लिए तो पाश्चात्य खान-पान के मेल को रख लेना चाहिए। लेकिन उनके मन में तो अपने बाटी चोखा के स्वाद को बड़े फलक तक ले जाने का जज्बा और जुनून था लिहाजा हर तरीके के सलाह और नुकसान को दरकिनार करते हुए वो अपने मिशन में जुटे रहे. सालों से रेस्टोरेंट आर्थिक नुकसान और गुमनामी से जूझता रहा। वह कहते हैं ना कि “कौन कहता है कि आसमान में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।” और बाटी चोखा रेस्टोरेंट का पूरी शिद्दत के साथ उछाला गया इरादों का यह पत्थर एक दिन स्वाद के आसमान में सुराख कर ही दिया और देखते-देखते बाटी चोखा रेस्टोरेंट में पारोसे जाने वाला पारंपरिक स्वाद बच्चे बड़े बूढ़े सभी के जबान पर चढ़ गया और यह स्वाद जब परवान चढ़ा तो बनारस से निकलकर देश के कई शहरों में इसकी शाखाएं खुलने लगी। बनारस में तेलियाबाग, डाफी , कलकत्ता के साल्टलेक, लखनऊ के गोमतीनगर और अलीगंज और अब नोएडा में बाटी चोखा रेस्टॉरेंट वहां के लोंगो को परंपरा का स्वाद चखायेगा। बाटी चोखा रेस्टोरेंट सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है आज लोगों ने इसका अनुसरण या यूं कहिए नकल करना शुरू किया। आज यह कहते हुए बेहद प्रसन्नता होती है की बाटी चोखा रेस्टोरेंट के नाम और उसके साज सज्जा की नकल कर दर्जनों रेस्टोरेंट अलग-अलग जिलों में खुल चुके हैं। और यही बात साबित करती है कि ठेले पर बिकने वाला यह स्वाद आज अपने गुणवत्ता की वजह से बड़े-बड़े रेस्टोरेंट के साथ फाइव स्टार होटल की भी एक मजबूरी बन गया है ।