जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से बलदेव छठ
बलदेव छठ
बल्देव छठ का सम्बन्ध श्री बलराम जी से है। मतान्तर से भाद्रपदशुक्ल पक्ष की षष्ठी को ब्रज के राजा और भगवान श्रीकृष्ण के अग्रज बल्देव जी का जन्मदिन ब्रज में बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है। ‘देवछठ’ के दिन दाऊजी में विशाल मेला आयोजित होता है और दाऊजी के मन्दिर में विशेष पूजा एवं दर्शन होते हैं।
पौराणिक संदर्भ
ब्रज के राजा दाऊजी महाराज के जन्म के विषय में ‘गर्ग पुराण’ के अनुसार देवकी के सप्तम गर्भ को योगमाया ने संकर्षण कर रोहिणी के गर्भ में पहुँचाया। भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के स्वाति नक्षत्र में वसुदेव की पत्नी रोहिणी जो कि नन्दबाबा के यहाँ रहती थी, के गर्भ से अनन्तदेव ‘शेषावतार’ प्रकट हुए। इस कारण श्री दाऊजी महाराज का दूसरा नाम ‘संकर्षण’ हुआ। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि बुधवार के दिन मध्याह्न 12 बजे तुला लग्न तथा स्वाति नक्षत्र में बल्देव जी का जन्म हुआ। उस समय पाँच ग्रह उच्च के थे। इस समय आकाश से छोटी-छोटी वर्षा की बूँदें और देवता पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।
दाऊजी महाराज का नामकरण
नन्दबाबा ने विधिविधान से कुलगुरु गर्गाचार्य जी से दाऊजी महाराज का नामकरण कराया। पालने में विराजमान शेषजी के दर्शन करने के लिए अनेक ऋषि, मुनि आये। ‘कृष्ण द्वैपायन व्यास’ महाराज ने नन्दबाबा को बताया कि यह बालक सबका मनोरथ पूर्ण करने वाला होगा। प्रथम रोहिणी सुत होने के कारण रोहिणेय द्वितीय सगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेंगे।
बल्देव जी कृष्ण के बड़े भाई थे, दोनों भाइयों ने छठे वर्ष में प्रवेश करने के साथ ही समाज सेवा एवं दैत्य संहार का कार्य प्रारम्भ किया दिया था। उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर मथुरा के राजा कंस का वध किया। एक दिन किसी बात को लेकर दाऊजी महाराज जी कृष्ण से रुष्ट हो गये। इस बात को लेकर दाऊजी महाराज ने कालिन्दी की धारा को अपने हल की नोंक से विपरीत दिशा में मोड़ दिया। जिसका प्रमाण आज भी ब्रज में मौजूद है। ठाकुर श्री दाऊजी महाराज मल्ल विद्या के गुरु थे। साथ ही हल-मूसल होने के साथ वे ‘कृषक देव’ भी थे। आज भी किसान अपने कृषि कार्य प्रारम्भ करने से पहले दाऊजी महाराज को नमन करते हैं।पौराणिक आख्यान ब्रज के राजा पालक और संरक्षक कहे जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम पुराणों के अनुसार बलराम जी के रूप में शेषनाग के शेषयायी विष्णु भगवान के निर्देश पर अवतार लिया था। शेषनाग के जन्म की भी कथा है। कद्रू क गर्भ से कश्यप के पुत्र के रूप में शेषनाग का जन्म हुआ। भगवान विष्णु की आज्ञा से शेषनाग ने भूमण्डल को अपने सिर पर धारण कर लिया और सबसे नीचे के लोक में स्थित हो गये। तब अतिबल चाक्षप मनु पृथ्वी के सम्राट हुए। मनु ने यज्ञ किया और यज्ञ कुण्ड से ‘ज्योतिस्मती’ नामक कन्या उत्पन्न हुई। नागराज शेषनाग ने अपनी पत्नी ‘नागलक्ष्मी’ को आदेश दिया कि तुम मनु की कन्या के रूप में यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न होना। एक दिन मनु ने स्नेह वश पुत्री से पूछा तुम कैसा वर चाहती हो? कन्या ने कहा कि जो सबसे अधिक बलवान हो, वही मेरा स्वामी हो। राजा ने सभी देवों को बुलाकर उनकी शक्ति को जाना तो उन्होंने भगवान संकर्षण को श्रेष्ठ बलवान बताते हुए उनके गुणों का बखान किया। संकर्षण को प्राप्त करने के लिए ज्योतिस्मती ने लाखों वर्षों तक विन्ध्याचल पर्वत पर तप किया। सबने अपने-अपने बल की प्रशंसा की लेकिन ज्योतिस्मती ने भगवान संकर्षण का स्मरण कर क्रोधित कर शनि को पंगु, शुक्र को काना, बृहस्पति को स्त्रीभाव, बुध को निष्फल, मंगल को वानरमुखी, चन्द्रमा को राज्य यक्ष्मा रोगी, सूर्य को दन्तविहीन, वरुण को जलन्धर रोग, यमराज को मानभंग का श्राप दे दिया। इन्द्र का श्राप ज्योतिषाल हो गया। तब ब्रह्मा जी की दृष्टि उस तेजस्विनी पर पड़ी, उन्होंने भगवान संकर्षण को प्राप्त करने का वरदान दिया, लेकिन तब तक 27 चतुर्युगी बीत गये। दाऊजी मन्दिर, बलदेव अवतार तब ज्योतिस्मती आनर्त देश के राजा रैवत कन्या रेवती की देह में विलीन हो गई। जब दैत्य सेनाओं ने राजाओं के रूप में उत्पन्न होकर पृथ्वी को भयानक भार से दबा दिया, तब पृथ्वी ने गौ का रूप धारण कर ब्रह्मा जी की शरण ली। देव श्रेष्ठ ब्रह्माजी ने शंकरजी को विरजा नदी के तट पर ‘भगवान संकर्षण’ के दर्शन किये। देवताओं ने उन्हें पृथ्वी के भार वृत्तांत सुनाया तब शेषशोभी भगवान शेषनाग से कहने लगे, तुम पहले रोहिणी के उदर से प्रकट हो, मैं देवकी के पुत्र के रूप में अभिभूर्त होऊँगा। इस प्रकार मल्ल विद्या के गुरु कृष्णाग्रज बलरामजी ने भाद्रपद मास षष्ठी तिथि बुधवार के दिन मध्याह्न के समय तुला लग्न में पाँच ग्रह उच्च के थे, रोहिणी आनन्द और सुख से तृत्प किया।
बलराम जी का विवाह
यह मान्यता है कि भगवान विष्णु ने जब-जब अवतार लिया उनके साथ शेषनाग ने भी अवतार लेकर उनकी सेवा की। इस तरह बलराम को भी शेषनाग का अवतार माना जाता है। लेकिन बलराम के विवाह का शेषनाग से क्या नाता है यह भी आपको बताते हैं। दरअसल गर्ग संहिता के अनुसार एक इनकी पत्नी रेवती की एक कहानी मिलती है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में रेवती पृथ्वी के राजा मनु की पुत्री थी जिनका नाम था ज्योतिष्मती। एक दिन मनु ने अपनी बेटी से वर के बारे में पूछा कि उसे कैसा वर चाहिये इस पर ज्योतिष्मती बोली जो पूरी पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली हो। अब मनु ने बेटी की इच्छा इंद्र के सामने प्रकट करते हुए पूछा कि सबसे शक्तिशाली कौन है तो इंद्र का जवाब था कि वायु ही सबसे ताकतवर हो सकते हैं लेकिन वायु ने अपने को कमजोर बताते हुए पर्वत को खुद से बलशाली बताया फिर वे पर्वत के पास पंहुचे तो पर्वत ने पृथ्वी का नाम लिया और धरती से फिर बात शेषनाग तक पंहुची। फिर शेषनाग को पति के रुप में पाने के लिये ज्योतिष्मती ब्रह्मा जी के तप में लीन हो गईं। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने द्वापर में बलराम से शादी होने का वर दिया। द्वापर में ज्योतिष्मती ने राजा कुशस्थली के राजा (जिनका राज पाताल लोक में चलता था) कुडुम्बी के यहां जन्म लिया। बेटी के बड़ा होने पर कुडुम्बी ने ब्रह्मा जी से वर के लिये पूछा तो ब्रह्मा जी ने पूर्व जन्म का स्मरण कराया तब बलराम और रेवती का विवाह तय हुआ। लेकिन एक दिक्कत अब भी थी वह यह कि पाताल लोक की होने के कारण रेवती कद-काठी में बहुत लंबी-चौड़ी दिखती थी पृथ्वी लोक के सामान्य मनुष्यों के सामने तो वह दानव नजर आती। लेकिन हलधर ने अपने हल से रेवती के आकार को सामान्य कर दिया। जिसके बाद उन्होंनें सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया।
बलराम और रेवती के दो पुत्र हुए जिनके नाम निश्त्थ और उल्मुक थे। एक पुत्री ने भी इनके यहां जन्म लिया जिसका नाम वत्सला रखा गया। माना जाता है कि श्राप के कारण दोनों भाई आपस में लड़कर ही मर गये। वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण के साथ तय हुआ था, लेकिन वत्सला अभिमन्यु से विवाह करना चाहती थी। तब घटोत्कच ने अपनी माया से वत्सला का विवाह अभिमन्यु से करवाया था।
बलराम जी के हल की कथा
बलराम के हल के प्रयोग के संबंध में किवदंती के आधार पर दो कथाएं मिलती है। कहते हैं कि एक बार कौरव और बलराम के बीच किसी प्रकार का कोई खेल हुआ। इस खेल में बलरामजी जीत गए थे लेकिन कौरव यह मानने को ही नहीं तैयार थे। ऐसे में क्रोधित होकर बलरामजी ने अपने हल से हस्तिनापुर की संपूर्ण भूमि को खींचकर गंगा में डुबोने का प्रयास किया। तभी आकाशवाणी हुई की बलराम ही विजेता है। सभी ने सुना और इसे माना। इससे संतुष्ट होकर बलरामजी ने अपना हल रख दिया। तभी से वे हलधर के रूप में प्रसिद्ध हुए।
एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती का पुत्र साम्ब का दिल दुर्योधन और भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा था। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से गंधर्व विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।
कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्तकर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी।
ऐसे में बलराम का क्रोध जाग्रत हो गया। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया। वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। बाद में द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।
बलदेव स्तोत्र
दुर्योधन उवाच- स्तोत्र श्रीबलदेवस्य प्राडविपाक महामुने। वद मां कृपया साक्षात् सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।
प्राडविपाक उवाच- स्तवराजं तु रामस्य वेदव्यासकृतं शुभम्। सर्वसिद्धिप्रदं राजञ्श्रृणु कैवल्यदं नृणाम् ।।
देवादिदेव भगवन् कामपाल नमोऽस्तु ते। नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षादरामाय ते नम: ।।
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये। सहस्त्रशिरसे नित्यं नम: संकर्षणाय ते ।।
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रज। हलायुध प्रलम्बघ्न पाहि मां पुरुषोत्तम ।।
बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नम:। नीलाम्बराय गौराय रौहिणेयाय ते नम: ।।
धेनुकारिर्मुष्टिकारि: कूटारिर्बल्वलान्तक:। रुक्म्यरि: कूपकर्णारि: कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि ।।
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षक:। द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलारिस्त्वमेव हि ।।
कंसभ्रातृप्रहन्तासि तीर्थयात्राकर: प्रभु:। दुर्योधनगुरु: साक्षात् पाहि पाहि प्रभो त्वत: ।।
जय जयाच्युत देव परातपर स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत। सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नम: ।।
य: पठेत सततं स्तवनं नर: स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्। जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं भवति तस्य धनं स्वजनं धनम् ।।
श्रीबलदाऊ कवच
दुर्योधन उवाच- गोपीभ्य: कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता। सर्वरक्षाकरं दिव्यं देहि मह्यं महामुने ।
प्राडविपाक उवाच- स्त्रात्वा जले क्षौमधर: कुशासन: पवित्रपाणि: कृतमन्त्रमार्जन: ।
स्मृत्वाथ नत्वा बलमच्युताग्रजं संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत् ।।
गोलोकधामाधिपति: परेश्वर: परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन: ।
भूमण्डलं सर्षपवद् विलक्ष्यते यन्मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्डले ।।
सेनासु मां रक्षतु सीरपाणिर्युद्धे सदा रक्षतु मां हली च ।
दुर्गेषु चाव्यान्मुसली सदा मां वनेषु संकर्षण आदिदेव: ।।
कलिन्दजावेगहरो जलेषु नीलाम्बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ ।
वायौ च रामाअवतु खे बलश्च महार्णवेअनन्तवपु: सदा माम् ।।
श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु सहस्त्रशीर्षा च महाविवादे ।
रोगेषु मां रक्षतु रौहिणेयो मां कामपालोऽवतु वा विपत्सु ।।
कामात् सदा रक्षतु धेनुकारि: क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी ।
लोभात् सदा रक्षतु बल्वलारिर्मोहात् सदा मां किल मागधारि: ।।
प्रात: सदा रक्षतु वृष्णिधुर्य: प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्द्र: ।
मध्यंदिने गोपसख: प्रपातु स्वराट् पराह्णेऽस्तु मां सदैव ।।
सायं फणीन्द्रोऽवतु मां सदैव परात्परो रक्षतु मां प्रदोषे ।
पूर्णे निशीथे च दरन्तवीर्य: प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव ।।
विदिक्षु मां रक्षतु रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्बारिरधो यदूद्वह: ।।
ऊर्ध्वं सदा मां बलभद्र आरात् तथा समन्ताद् बलदेव एव हि ।।
अन्त: सदाव्यात् पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्द्रलीलोऽवतु मां महाबल: ।
सदान्तरात्मा च वसन् हरि: स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्वरो महान् ।।
देवासुराणां भ्यनाशनं च हुताशनं पापचयैन्धनानाम् ।
विनाशनं विघ्नघटस्य विद्धि सिद्धासनं वर्मवरं बलस्य ।।
बलदाऊ की आरती
कृष्ण कन्हैया को दादा भैया, अति प्रिय जाकी रोहिणी मैया
श्री वसुदेव पिता सौं जीजै…… बलदाऊ
नन्द को प्राण, यशोदा प्यारौ , तीन लोक सेवा में न्यारौ
कृष्ण सेवा में तन मन भीजै …..बलदाऊ
हलधर भैया, कृष्ण कन्हैया, दुष्टन के तुम नाश करैया
रेवती, वारुनी ब्याह रचीजे ….बलदाऊ
दाउदयाल बिरज के राजा, भंग पिए नित खाए खाजा
नील वस्त्र नित ही धर लीजे,……बलदाऊ
जो कोई बल की आरती गावे, निश्चित कृष्ण चरण राज पावे
बुद्धि, भक्ति ‘गिरि’ नित-नित लीजे …..बलदाऊ
आरती के बाद श्री बलभद्र स्तोत्र और कवच का पाठ अवश्य करें।
बलदेव स्तोत्र
दुर्योधन उवाच- स्तोत्र श्रीबलदेवस्य प्राडविपाक महामुने। वद मां कृपया साक्षात् सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।
प्राडविपाक उवाच- स्तवराजं तु रामस्य वेदव्यासकृतं शुभम्। सर्वसिद्धिप्रदं राजञ्श्रृणु कैवल्यदं नृणाम् ।।
देवादिदेव भगवन् कामपाल नमोऽस्तु ते। नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षादरामाय ते नम: ।।
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये। सहस्त्रशिरसे नित्यं नम: संकर्षणाय ते ।।
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रज। हलायुध प्रलम्बघ्न पाहि मां पुरुषोत्तम ।।
बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नम:। नीलाम्बराय गौराय रौहिणेयाय ते नम: ।।
धेनुकारिर्मुष्टिकारि: कूटारिर्बल्वलान्तक:। रुक्म्यरि: कूपकर्णारि: कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि ।।
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षक:। द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलारिस्त्वमेव हि ।।
कंसभ्रातृप्रहन्तासि तीर्थयात्राकर: प्रभु:। दुर्योधनगुरु: साक्षात् पाहि पाहि प्रभो त्वत: ।।
जय जयाच्युत देव परातपर स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत। सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नम: ।।
य: पठेत सततं स्तवनं नर: स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्। जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं भवति तस्य धनं स्वजनं धनम् ।।
श्रीबलदाऊ कवच
दुर्योधन उवाच- गोपीभ्य: कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता। सर्वरक्षाकरं दिव्यं देहि मह्यं महामुने ।
प्राडविपाक उवाच- स्त्रात्वा जले क्षौमधर: कुशासन: पवित्रपाणि: कृतमन्त्रमार्जन: ।
स्मृत्वाथ नत्वा बलमच्युताग्रजं संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत् ।।
गोलोकधामाधिपति: परेश्वर: परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन: ।
भूमण्डलं सर्षपवद् विलक्ष्यते यन्मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्डले ।।
सेनासु मां रक्षतु सीरपाणिर्युद्धे सदा रक्षतु मां हली च ।
दुर्गेषु चाव्यान्मुसली सदा मां वनेषु संकर्षण आदिदेव: ।।
कलिन्दजावेगहरो जलेषु नीलाम्बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ ।
वायौ च रामाअवतु खे बलश्च महार्णवेअनन्तवपु: सदा माम् ।।
श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु सहस्त्रशीर्षा च महाविवादे ।
रोगेषु मां रक्षतु रौहिणेयो मां कामपालोऽवतु वा विपत्सु ।।
कामात् सदा रक्षतु धेनुकारि: क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी ।
लोभात् सदा रक्षतु बल्वलारिर्मोहात् सदा मां किल मागधारि: ।।
प्रात: सदा रक्षतु वृष्णिधुर्य: प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्द्र: ।
मध्यंदिने गोपसख: प्रपातु स्वराट् पराह्णेऽस्तु मां सदैव ।।
सायं फणीन्द्रोऽवतु मां सदैव परात्परो रक्षतु मां प्रदोषे ।
पूर्णे निशीथे च दरन्तवीर्य: प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव ।।
विदिक्षु मां रक्षतु रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्बारिरधो यदूद्वह: ।।
ऊर्ध्वं सदा मां बलभद्र आरात् तथा समन्ताद् बलदेव एव हि ।।
अन्त: सदाव्यात् पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्द्रलीलोऽवतु मां महाबल: ।
सदान्तरात्मा च वसन् हरि: स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्वरो महान् ।।
देवासुराणां भ्यनाशनं च हुताशनं पापचयैन्धनानाम् ।
विनाशनं विघ्नघटस्य विद्धि सिद्धासनं वर्मवरं बलस्य ।।