जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से नारदजी का अभिमान-भंग और माया का प्रभाव।

जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से नारदजी का अभिमान-भंग और माया का प्रभाव।

नारदजी का अभिमान-भंग और माया का प्रभाव।

एक बार नारदजी हिमालय पर तपस्या कर रहे थे। सहस्त्रों वर्ष बीत गए पर उनकी समाधि भंग न हुई। यह देखकर इन्द्र को बड़ा भय हुआ अत: इन्द्र ने कामदेव और बसंत को बुलाकर नारदजी की तपस्या भंग करने भेजा।

कामदेव ने सभी कलाओं का प्रयोग कर लिया पर नारदजी पर उसकी एक न चली क्योंकि यह वही स्थान था जहां भगवान शंकर ने कामदेव को जलाया था। अत: इस स्थान पर कामदेव के वाणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। विवश होकर कामदेव इन्द्र के पास लौट आया और कहा–’नारदजी में न काम ही है न क्रोध ही। क्योंकि उन्होंने मेरा मधुर वचनों से आतिथ्य किया।’ यह सुनकर सब दंग रह गए।

तपस्या पूरी होने पर ‘कामदेव पर मेरी विजय हुई है’ ऐसा मानकर नारदजी के मन में व्यर्थ ही गर्व हो गया। वे यह नहीं समझ सके कि कामदेव के पराजित होने में भगवान शंकर का प्रभाव ही कारण है।

नारदजी अपना काम-विजय सम्बन्धी वृतान्त बताने के लिए भगवान शंकर के पास कैलास पर्वत पर गए और अपनी कथा सुनाई। शंकरजी ने कहा आप अपनी यह बात कभी किसी से न कहना। यह सिद्धि सम्बन्धी बात गुप्त रखने योग्य है।

यह बात भगवान विष्णु को बिल्कुल न बताइयेगा। नारदजी को यह बात अच्छी नहीं लगी और वे वीणा लेकर वैकुण्ठ को चल दिए और वहां जाकर भगवान विष्णु को अपना काम-विजय प्रसंग सुनाने लगे। भगवान ने सोचा–’इनके हृदय में समस्त शोक का कारण अहंकार का अंकुर उत्पन्न हो रहा है, सो इसे झट से उखाड़ डालना चाहिए।’

विष्णुलोक से जब नारदजी पृथ्वी पर आए तो उन्हें वैकुण्ठ से भी सुन्दर एक बड़ा मनोहर नगर दिखाई दिया। भगवान की माया की बात वे समझ न सके। लोगों से पूछने पर पता चला कि इस नगर का राजा शीलनिधि अपनी पुत्री ‘श्रीमती’ का स्वयंवर कर रहा है जिसमें देश-विदेश से राजा आये हैं।

नारदजी भी राजा के यहां पहुँच गए। राजा और उसकी पुत्री ने नारदजी को प्रणाम किया। इसके बाद राजा ने अपनी पुत्री के भाग्य के बारे में नारदजी से पूछा। नारदजी उसके लक्षण देखकर चकित रह गए।

नारदजी ने राजा को बताया–’आपकी यह पुत्री अपने महान भाग्य के कारण धन्य है और साक्षात् लक्ष्मी की भांति समस्त गुणों से सम्पन्न है। इसका भावी पति निश्चय ही भगवान शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित न होने वाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा।’

अब नारदजी स्वयं काम के वशीभूत होकर उस राजकुमारी से विवाह करना चाहते थे। उन्होंने विष्णु भगवान से प्रार्थना की। प्रभु प्रकट हो गए।
नारदजी बोले–’नाथ ! मेरा हित करो। मैं आपका प्रिय सेवक हूँ। राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर रचाया है। आप अपना स्वरूप मुझे दे दीजिए। आपकी कृपा के बिना राजकुमारी को प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं है।’ भगवान ने कहा–

‘वैद्य जिस प्रकार रोगी की औषधि करके उसका कल्याण करता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा हित अवश्य करूंगा।’

यद्यपि भगवान का कथन स्पष्ट था किन्तु काम से व्याकुल नारदजी को कुछ समझ नहीं आया। और वे यह समझकर कि ‘भगवान ने मुझे अपना रूप दे दिया’ स्वयंवर-सभा में जा विराजे। भगवान ने उनका मुख हरि (हरि भगवान का एक नाम है और बंदर को भी हरि कहते हैं) जैसा बना दिया और शेष अंग अपने जैसे बना दिए थे।

अब राजकुमारी जयमाल लेकर सभा में आई तो नारदजी का बंदर का मुख देखकर कुपित हो गई और उसने वहां सभा में बैठे विष्णु भगवान को जयमाला पहना दी। भगवान राजकुमारी को लेकर चले गए। नारदजी बड़े दुखी हुए। वहां उपस्थित शिवजी के गणों ने नारदजी को अपना मुंह दर्पण में देखने के लिए कहा।

दर्पण तो था नहीं, जब नारदजी ने पानी में अपना मुंह देखा तो वानरमुख देखकर उन्हें बहुत क्रोध आया। और वे विष्णुलोक के लिए चल दिए। रास्ते में ही उन्हें भगवान विष्णु राजकुमारी के साथ मिल गए। नारदजी क्रोध में बोले–

‘मैं तो जानता था कि तुम भले व्यक्ति हो परन्तु तुम सर्वथा विपरीत निकले। समुद्र-मंथन के समय तुमने असुरों को मद्य पिला दिया और स्वयं कौस्तुभादि चार रत्न और लक्ष्मी को ले गए। शंकरजी को बहलाकर विष दे दिया।

यदि उन कृपालु ने उस समय हलाहल को न पी लिया होता तो तुम्हारी सारी माया नष्ट हो जाती और आज हमारे साथ यह कौतुक न होता। तुमने मेरी अभीष्ट कन्या छीनी, अतएव तुम भी स्त्री के विरह में मेरे जैसे ही विकल होओगे। तुमने जिन वानरों के समान मेरा मुंह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक होंगे।’

भगवान ने अपनी माया खींच ली। अब नारदजी देखते हैं तो न वहां राजकुमारी है और न ही लक्ष्मीजी। वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे और ‘त्राहि त्राहि’ कहकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े। भगवान ने भी उन्हें सान्त्वना दी और आशीर्वाद दिया कि अब माया तुम्हारे पास न फटकेगी।

श्रीनारदजी ही एकमात्र ऐसे संत हैं, जिनका सभी देवता और दैत्यगण समान रूप से सम्मान एवं विश्वास करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने नारदजी के सम्बन्ध में कहा है–

‘मैं दिव्यदृष्टि सम्पन्न श्रीनारदजी की स्तुति करता हूँ। जिनके मन में अहंकार नहीं है, जिनका शास्त्रज्ञान और चरित्र किसी से छिपा नहीं है, उन देवर्षि नारद को मैं नमस्कार करता हूँ। जो कामना अथवा लोभवश झूठी बात मुँह से नहीं निकालते और सभी प्राणी जिनकी उपासना करते हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ

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