जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से देव मूर्ति की परिक्रमा का महत्व क्यों?

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से देव मूर्ति की परिक्रमा का महत्व क्यों?



परिक्रमा करना कोरा अंधविश्वास नहीं, बल्कि यह विज्ञान सम्मत है। जिस स्थान या मंदिर में विधि-विधानानुसार प्राण प्रतिष्ठित देवी-देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है उस स्थान के मध्य बिंदु से प्रतिमा के कुछ मीटर की दूरी तक उस शक्ति की दिव्य प्रभा रहती है, जो पास में अधिक गहरी और बढ़ती दूरी के हिसाब से कम होती चली जाती है। ऐसे में प्रतिमा की पास से परिक्रमा करने से शक्तियों के ज्योतिर्मंडल से निकलने वाले तेज की हमें सहज ही प्राप्ति हो जाती है।

चूंकि दैवीय शक्ति की आभा मंडल की गति दक्षिणवर्ती होती है, अतः उनकी दिव्य प्रभा सदैव ही दक्षिण की ओर गतिमान होती है। यही कारण है कि दाएं हाव की ओर से परिक्रमा किया जाना श्रेष्ठ माना गया है। यानी दाहिने हाथ की ओर से घूमना ही प्रदक्षिणा का सही अर्थ है। हम अपने इष्ट देवी-देवता की मूर्ति की, विविध शक्तियों की प्रभा या तेज को परिक्रमा करके प्राप्त कर सकते हैं उनका यह तेजदान वरदान स्वरूप विघ्नों, संकटों, विपत्तियों का नाश करने में समर्थ होता है। इसलिए परंपरा है कि पूजा-पाठ, अभिषेक आदि कृत्य करने के बाद देवी-देवता की परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए।

कहा जाता है कि प्रतिमा की शक्ति की जितनी अधिक परिक्रमा की जाए, उतना ही वह लाभप्रद होती है। फिर भी कृष्ण भगवान् की तीन परिक्रमा की जाती है। देवी जी की एक परिक्रमा करने का विधान है। आमतौर पर पांच, ग्यारह परिक्रमा करने का सामान्य नियम है। शास्त्रों में भगवान् शंकर की परिक्रमा है। करते समय अभिषेक की धार को न लांघने का विधान बताया गय इसलिए इनकी पूरी परिक्रमा न कर आधी की जाती है और आधी वापस उसी तरफ लौटकर की जाती है। मान्यता यह है कि शंकर भगवान् के तेज की लहरों की गतियां बाईं और दाई दोनों ओर होती हैं।
उलटी यानी विपरीत वामवर्ती (बाएं हाथ की तरफ से) परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है। परिणामस्वरूप हमारा तेज नष्ट हो जाता है। इसीलिए वामवर्ती परिक्रमा को वर्जित किया गया है। इसे पाप स्वरूप बताया गया है। इसके घातक परिणाम उस दैवीय शक्ति पर निर्भर करते हैं, जिसकी विपरीत परिक्रमा की गई है। जाने या अनजाने में की गई उलटी परिक्रमा का दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ता है।

परिक्रमा करने वाले श्रद्धालुओं को कुछ बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। जिस देवी-देवता की परिक्रमा की जा रही है, उसकी परिक्रमा के दौरान उसका मंत्र जाप मन में करें। मन में निंदा, बुराई, दुर्भावना, क्रोध, तनाव आदि विकार न आने दें। जूते, चप्पल निकाल कर नंगे पैर ही परिक्रमा करें। हंसते-हंसते, बातचीत करते-करते, खाते-पीते, धक्का-मुक्की करते हुए परिक्रमा न करें। परिक्रमा के दौरान दैवी शक्ति से याचना न करें देवी-देवता को प्रिय तुलसी, रुद्राक्ष, कमलगट्टे की माला उपलब्ध हो, तो धारण करें। परिक्रमाएं पूर्ण कर अंत में प्रतिमा को साष्टांग प्रणाम कर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ आशीर्वाद हेतु प्रार्थना करें।

पदम्पुराण में हरिपूजा विधि वर्णन के अंतर्गत श्लोक 115-117 में कहा गया है –
हरिप्रदक्षिणे यावत्पदं गच्छेत् शनैः शनैः। पदपदेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ यावत्पादं नरो भक्त्या गच्छेद्विष्णुप्रदक्षिणे।
तावत्कल्पसहस्राणि विष्णुना सह मोदते ॥ प्रदक्षिणीकृत्य सर्वं संसारं यत्फलभवेत् । हरि प्रदक्षिणीकृत्यं तस्मात्कोटिगुणं फलम् ॥

अर्थात् भक्तिभाव से जो मनुष्य भगवान् विष्णु की परिक्रमा करने में धीरे-धीरे जितने भी कदम चलता है, उसके एक-एक पद के चलने में मनुष्य एक-एक अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त किया करता है। जितने कदम प्रदक्षिणा करते हुए भक्त चलता है, उतने ही सहस्र कल्पों तक भगवान् विष्णु के धाम में उनके ही साथ प्रसन्नता से निवास करता है। संपूर्ण संसार की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, उनके भी करोड़ गुणा अधिक श्रीहरि की प्रदक्षिणा करने में फल प्राप्त हुआ करता है।

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