जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गर्भ के नौ माहों पर नौ ग्रहों का प्रभाव
गर्भ के नौ माहों पर नौ ग्रहों का प्रभाव
मानव जाति में गर्भावस्था का समय 279 दिन का है। प्राय: यह मासिक धर्म के समय से गिनना प्रारंभ होता है। मासिक धर्म के 280 दिन के बाद बच्चे का जन्म होता है जो कि लगभग दसवे मास का समय है। ये नौ माह एक नवजीव के निर्माण और मां के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। यदि हमें इनके बारे में ज्योतिष जानकारी हो तो निश्चित रूप से गर्भस्थ शिशु को उत्तम जीवन और संस्कार प्रदान किए जा सकते हैं। अभी हम इन्हीं दस मासों की विवेचना कर रहे हैं।
(1) संसर्ग मार्ग, मैथुन, रज व वीर्य इन सबके कारक शुक्र हैं। गर्भावस्था के पहले माह में वीर्य व रज का सम्मिश्रण तरल रूप में रहता है, अत: इस माह के स्वामी शुक्र हैं। स्त्री की जन्मपत्रिका में यदि शुक्र अस्त वक्री या पीडि़त हों तो इस समय विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। शुक्र की आराधना हेतु “ऊँ शुं शुक्राय नम:”
इस मंत्र का जाप करना चाहिए। गर्भवती स्त्री के पहले माह के दौरान यदि शुक्र गोचर के कारण भी पीडि़त हों तो समस्या आ सकती है, अत: ध्यान रखना चाहिए।
(2) दूसरे माह में तरल सम्मिश्रण एक पिण्ड का रूप धारण करने लगता है इसमें जड़ता निहित होती है। पृथ्वी पुत्र मंगल इस मास के स्वामी हैं। दूसरे माह में मांस की उत्पत्ति होती है, मांस घनीमूत अवस्था आदि के कारक मंगल हैं। स्त्री की जन्म पत्रिका में मंगल यदि दु:स्थान में हो या दूसरे माह के दौरान गोचर वश वक्री अस्त या पीडि़त हो जाएं तो समस्या आ सकती है। मंगल देव की आराधना हेतु स्त्री को “ऊँ भौं भौमाय नम:” मंत्र का जाप करना चाहिए।
(3) तीसरे महीने में भ्रूण के लिंग का निर्धारण हो जाता है और भ्रूण के हाथ-पैर आदि विकसित होने लगते हैं। इस महीने के स्वामी बृहस्पति हैं। अब पिण्ड जीव रूप में आ जाता है। जीवन प्रदान करना और वृद्धि करना बृहस्पति देव का कारकत्व है।चूंकी अंग विकास और हलचल तीसरे माह में आरंभ हो जाती है अत: इस माह में बृहस्पति देव की आराधना करनी चाहिए। गर्भस्थ स्त्री की जन्मपत्रिका में यदि बृहस्पति पीडि़त हों या गोचरवश इस माह के दौरान वक्री,अस्त या अन्य रूप से पीडि़त हो तो समस्या हो सकती है, अत: विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। बृहस्पति देव की प्रसन्नता हेतु मंत्र जाप करना चाहिए “ऊँ बृं बृहस्पतये नमः”
(4) गर्भाधारण के चौथे महीने शरीर में हड्डियों का निर्माण शुरु हो जाता हैं। हड्डियां मजबूती व सामर्थ्य का प्रतीक हैं। मजबूती व सामर्थ्य सूर्य देव के आधीन है एवं इस माह के स्वामी सूर्य देव हैं। यदि स्त्री की कुण्डली में सूर्य देव पीडि़त हों तो समस्या आती है। इस माह में यदि गोचरवश भी सूर्य राहु या केतु से पीडि़त हों यानि सूर्य ग्रहण लगे तो भी गर्भ को कष्ट संभावित है। इस माह सूर्य देव के मंत्र “ऊँ धृणि: सूर्याय नम:” का जाप करना चाहिए। और पुंसवन संस्कार करना चाहिये।
(5) पांचवे महीने में गर्भस्थ पिण्ड में रक्त का निर्माण होने लगता है। रक्त द्रव रूप है। द्रव रूप या जल रूप पदार्थों के कारक चन्द्रमा हैं। चन्द्रमा मन व भावनाओं को भी नियंत्रित करते हैं अत: इस माह के स्वामी चन्द्रमा है। इसी महीने में रक्त, नसें और त्वचा का निर्माण होता है। गर्भवती स्त्री की पत्रिका में यदि चन्द्रमा अस्त हों, नीच राशि में या दु: स्थान में हों तो परेशानी होती है और इस माह चन्द्रमा गोचरवश ग्रहण योग बना दें तो भ्रूण को परेशानी होती है अत: यदि स्त्री चन्द्रमा की आराधना करें तो लाभदायक सिद्ध होगा। “ऊँ सों सोमाय नम:” मंत्र का जाप करें।
(6) छठें महीने में भ्रूण के नाखून व रोम निकल आते हैं। नाखून व बाल अवचेतन होते हैं उनमें जान नहीं होती। इनका विकास भी अच्छे स्वास्थ्य का प्रमाण है।नाखून, बाल, रोम आदि शनि देव के विषय होने के कारण इस माह के स्वामी शनिदेव हैं। स्त्री की जन्मपत्रिका में शनि यदि वक्री, पीडि़त या अस्त हों तो शिशु को कष्ट हो सकता है अत: इस माह में स्त्री को शनिदेव की आराधना करनी चाहिए। मंत्र जाप भी लाभ दे सकता है।
“ऊँ शं शनैश्चराय नम:”
(7) सातवां माह और भी महत्वपूर्ण है। इस माह में बुद्धि का प्रवेश होता है। चेतन होने पर मस्तिष्क सुख-दुख महसूस करने लगता है। बुद्धि, विवेक आदि के कारक बुध इस माह के स्वामी हैं। वे ही जीव में चेतना, बुद्धि का प्रकाश जगाते हैं। यदि स्त्री की जन्मपत्रिका में बुध पीडि़त हो तो समस्या आने की संभावना बढ़ जाती है और यदि गोचरवश बुध पीडि़त हो तो संस्कारों पर भी प्रभाव निश्चित है। समस्याओं से सुरक्षा हेतु बुध देव की आराधना करनी चाहिए। और “ऊँ बुं बुधाय नम:” का जाप करना चाहिये।
(8) आठवां महीना चूंकि थोड़ा जटिल होता है अत: इस माह में गर्भस्थ महिला को आराम करने की सलाह दी जाती है। आठवें माह का स्वामी स्वयं महिला का लग्नेश होता है। यदि महिला इस माह में प्रसूता हो जाएं तो शिशु को अधिक कष्ट होते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री को लग्नेश की आराधना करनी चाहिए। इसी महीने में भारतीय धर्मशास्त्रों में सीमांतोन्नयन संस्कार करने का विधान है, जिससे गर्भ सुरक्षित रहें।