जीवन मंत्र । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से कामाख्या मंदिर का रहस्य…….
तिलिस्म की धरती…. जादू- टोने की जननी… मायावी चेहरे… जहां समय चक्र के साथ पानी का रंग लाल हो जाता है… पहाड़ का रंग नीला। विनाशकारी वेग से डराने वाली लोहित नदी का प्रचंड स्वरूप भी ब्रह्मपुत्र में समाहित होकर शांत पड़ जाता है… नदियों के बीच इकलौते नद, ब्रह्मपुत्र का विस्तार यहां पहुंचकर अबूझ अनंत जैसा दिखता है।…
जनश्रुतियां तो कहती हैं कि यहां की सिद्धियों में इंसान को जानवर में बदल देने की शक्ति है… कुछ के लिए ये भय है और बहुतों के लिए यहां की तांत्रिक सिद्धियों के प्रभावी होने की आश्वस्ति। इसलिए तो देवी की देदीप्यमान अनुभूति के साथ श्रद्धालुओं की सैकड़ों पीढ़ियां गुजर गई। आस्था के कई कालखंड अतीत का हिस्सा बन गए। मगर विराट आस्था की नगरी कामरूप कामाख्या, तांत्रिक विद्या की सर्वोच्च सत्ता के रूप में आज भी प्रतिष्ठित है।
राजा दक्ष की बेटी सती ने पिता की मर्जी के खिलाफ़ शिव जी से शादी की थी। राजा दक्ष ने जब अपने यहां यज्ञ किया तो उसने शिव और सती को न्यौता नहीं दिया। इसके बावजूद सती अपने मायके गई जहां पिता दक्ष ने शिवजी के बारे में अपमानजनक शब्द कहे। उनका उपहास उड़ाया। जिससे आहत सती ने यज्ञ कुंड में कूदकर जान दे दी।
अग्निकुंड में कूदने से पहले सती के नेत्र लाल हो गए… उनकी भौंहें तन गई…मुखमंडल प्रलय के सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त हो उठा.. असीम पीड़ा से तिलमिलाते हुए सती ने कहा-
`ओह!… मैं इन शब्दों को कैसे सुन पा रही हूं… मुझे धिक्कार है। मेरे पिता दक्ष ने मेरे महादेव का अपमान किया… देवताओं तुम्हें धिक्कार है… तुम भी कैलाशपति के लिए ऐसे अपमानजनक शब्दों को कैसे सुन रहे हो जो मंगल के प्रतीक हैं… जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को भस्म कर सकते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। पृथ्वी सुनो… आकाश सुनो… देवताओं तुम भी सुनो!… मैं अब एक क्षण जीवित नहीं रहना चाहती… मैं अग्नि प्रवेश लेती हूं।’
सती की अग्नि समाधि से शिव ने प्रचंड रूप धारण कर लिया… देवी सती के जले हुए शरीर को लेकर कैलाशपति उन्मत की भांति सभी दिशाओं को थर्राने लगे… प्राणी से लेकर देवता तक त्राहिमाम मांगने लगे… भयानक संकट देखकर भगवान विष्णु, अपने चक्र से सती के अंगों को काटकर गिराने लगे… जब सती के सारे अंग कटकर गिर गए तब भगवान शंकर संयत हुए।
सती की अग्नि कुंड में समा जाने के बाद, भगवान शंकर समाधि में चले गए… इसी बीच तारकासुर के उत्पात से सृष्टि कांप उठी… उसका वध करने के लिए देवताओं ने भगवान शंकर की समाधि तोड़ने का यत्न किया..। देवताओं ने कामदेव को समाधि भंग करने के लिए भेजा लेकिन समाधि टूटने से क्रोधित महादेव ने कामदेव को भस्म कर दिया।
जहां तक नज़रें जाती है, हर तरफ ब्रह्मपुत्र ही ब्रह्मपुत्र है… ब्रह्मपुत्र की धाराओं से घिरा ये स्थान अत्यंत मनोरम है… कामाख्या आने वालों का ये वैसे भी पसंदीदा जगह है…. लेकिन कौमारी तीर्थ पर आए श्रद्धालुओं के लिए भी ये जगह ख़ास है…. यहां बने शिव मंदिर का इतना महत्व है कि उमानंद के दर्शन के बिना कामाख्या के दर्शन का फल नहीं मिलता है।
ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मपुत्र नदी के बीच बने इसी द्वीप पर समाधि में लीन भोले शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोला था… समाधि भंग होने से क्रोधित भगवान शंकर ने कामदेव को यहीं भस्म कर दिया था… इसलिए इस स्थान को भस्माचल भी कहा जाता है… कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर कैलाशपति ने कामदेव को पुनर्जीवन तो दे दिया लेकिन रूप और कांति नहीं आई।
हे महादेव! हे कैलाशपति! आपने मेरे स्वामी कामदेव को जीवन तो दे दिया लेकिन उनकी कांति… कामदेव का उनका रूप नहीं रहा… हे महादेव कृपा करो…. तुम दयालु हो… मेरे स्वामी का तेज प्रदान करो।
रति की प्रार्थना को महादेव ने स्वीकार कर लिया लेकिन उन्होंने देवी सती का मंदिर बनवाने की शर्त रखी… कामदेव ने मंदिर का निर्माण करवाया और कामदेव को रूप सौंदर्य मिला… इसलिए इस स्थान का नाम, कामरूप कामाख्या के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।
जिन इक्यावन स्थानों पर सती के अंग गिरे थे, वे स्थान ही आज शक्ति के पीठ माने जाते हैं… कामरूप कामाख्या में देवी का योनि भाग गिरा था जो देवी का जगत जननी स्वरूप है। नीलांचल पर्वत पर बने इस मंदिर को ऊपर से देखने पर ये शिवलिंग के आकार का दिखता है…. 51 शक्तिपीठों में इसे सर्वोच्च माना जाता है।… इसे कौमारी तीर्थ भी कहते हैं… इस शक्तिपीठ को असीम ऊर्जा और अथाह शक्ति का स्रोत माना गया है… इसलिए तंत्र साधना के लिए इसे ही सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है…
मान्यता है कि जून के महीने में देवी रजस्वला होती हैं… इस दौरान यहां हर साल अम्बूवाची योग पर्व मनाया जाता है, जो कुंभ की तरह विशाल होता है… इस दौरान माता कामाख्या मंदिर के कपाट बंद रहते हैं। साधक और तांत्रिक इस आयोजन के दौरान विभिन्न कर्मकांडों के जरिए दिव्य अलौकिक शक्तियों का अर्जन करते हैं।
सूर्य, चंद्रमा, तारे। प्रकृति का ये प्रत्यक्ष दर्शन, क्या मानव के जीवन पर निर्णायक प्रभाव डालता है?… ग्रह –नक्षत्रों का मानव जीवन पर सीधा असर पड़ता है?… इसका अध्ययन ही ज्योतिष कहलाता है। भारत के प्राग ज्योतिषपुर यानी पूर्व के ज्योतिष केंद्र से बेहतर जगह भला कौन हो सकती है?
चित्राचल पहाड़ी के नवग्रह मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। इसे ज्योतिषी विज्ञान का केंद्र माना जाता है। पूर्व मुखी मंदिर में पहुचने के लिए पूर्व से पश्चिम के लिए सीढ़ियां बनाई गई हैं… प्रवेश द्वार के दाहिनी तरफ राहु और बाईं तरफ केतु की प्रतिमा है… मंदिर की पहली दहलीज पर गणेश, शिव- पार्वती और श्रीकृष्ण की प्रतिमा है… तीन दीपक जलाकर सबसे पहले इन तीन प्रतिमाओं की पूजा होती है।
दूसरी दहलीज के बाद एक अंधेरी गुफा दिखती है… यहां दिखने वाले गोलाकार मंदिर के धरातल पर नौ शिवलिंग बने हुए हैं… हर शिवलिंग की जललहरी का मुख विभिन्न दिशाओं की तरफ है… एक मुख्य शिवलिंग बीच में बना हुआ है… यहां पूजा या दर्शन के बाद बाहर जाते समय पीछे घूमकर देखना वर्जित है।
कहते हैं कि ऐसा करने से पूजा का फल नहीं मिलता… यहां आने वाले भक्तों को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहों से संबंधित अनाज को पानी में भिगोकर दिया जाता है।
शुक्रेश्वर मंदिर :- सती की शक्ति और शिव की साधना की इस धरती की अपनी ही माया है… कहते हैं कि देवताओं से लेकर दैत्यों तक ने इस आदिशक्ति को स्वीकारा। दैत्यों के गुरू कहे जाने वाले शुक्राचार्य भी हस्तीगिरि पर शिव की आराधना करते थे। हाथी असम की पहचान हैं… काजीरंगा इसी पहचान को पुख्ता करता है… गुवाहाटी में हस्तीगिरि पर्वत का आकार भी हाथी की पीठ जैसा है… दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य मंदिर के शिवलिंग की दूर- दूर तक मान्यता है…
भारत के विशाल शिवलिंगों में इसे गिना जाता है… शुक्रेश्वर घाट दाह संस्कार के लिए भी जाना जाता है… और यहां से सूर्यास्त के अद्भुत नज़ारे के लिए भी। जो शायद श्मशान के देवता शिव के साथ जीवन की संध्या का प्रतीक है।