बभनी/सोनभद्र (अरुण पांडेय)
बभनी। के पोखरा में नवनिर्मित पिपराधाम में शिव दुर्गा मन्दिर के प्रांगण मे श्री मदभागवत कथा सप्ताह ज्ञान यज्ञ मे ब्यास जी श्री अन्नताचार्य अशोक जी महराज (काशी वाले) ने कथा के तीसरे दिन श्री शुकदेव जी महराज के अदभुत जन्म के बारे मे श्रोताओं को कथा सुनाई। एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से ऐसे गूढ़ ज्ञान देने का अनुरोध किया जो संसार में किसी भी जीव को प्राप्त न हो. वह अमरत्व का रहस्य प्रभु से सुनना चाहती थीं.
अमरत्व का रहस्य किसी कुपात्र के हाथ न लग जाए इस चिंता में पड़कर महादेव पार्वती जी को लेकर एक निर्जन प्रदेश में गए.
उन्होंने एक गुफा चुनी और उस गुफा का मुख अच्छी तरह से बंद कर दिया. फिर महादेव ने देवी को कथा सुनानी शुरू की. पार्वती जी थोड़ी देर तक तो आनंद लेकर कथा सुनती रहीं.
जैसे किसी कथा-कहानी के बीच में हुंकारी भरी जाती है उसी तरह देवी काफी समय तक हुंकारी भरती रहीं लेकिन जल्द ही उन्हें नींद आने लगी.
उस गुफा में तोते यानी शुक का एक घोंसला भी था. घोसले में अंडे से एक तोते के बच्चे का जन्म हुआ. वह तोता भी शिव जी की कथा सुन रहा था.
महादेव की कथा सुनने से उसमें दिव्य शक्तियां आ गईं. जब तोते ने देखा कि माता सो रही हैं. कहीं महादेव कथा सुनाना न बंद कर दें। इसलिए वह पार्वती की जगह हुंकारी भरने लगा.
महादेव कथा सुनाते रहे. लेकिन शीघ्र ही महादेव को पता चल गया कि पार्वती के स्थान पर कोई औऱ हुंकारी भर रहा है. वह क्रोधित होकर शुक को मारने के लिए उठे.
शुक वहां से निकलकर भागा. वह व्यास जी के आश्रम में पहुंचा. व्यास जी की पत्नी ने उसी समय जम्हाई ली और शुक सूक्ष्म रूप धारण कर उनके मुख में प्रवेश कर गया.
महादेव ने जब उसे व्यास की शरण में देखा तो मारने का विचार त्याग दिया. शुक व्यास की पत्नी के गर्भस्थ शिशु हो गए. गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो प्राप्त था ।
शुक ने सांसारिकता देख ली थी इस लिए वह माया के पृथ्वी लोक की प्रभाव में आना नहीं चाहते थे इसलिए ऋषि पत्नी के गर्भ से बारह वर्ष तक नहीं निकले.
व्यास जी ने शिशु से बाहर आने को कहा लेकिन वह यह कहकर मना करता रहा कि संसार तो मोह-माया है मुझे उसमें नहीं पड़ना. ऋषि पत्नी गर्भ की पीड़ा से मरणासन्न हो गईं.
भगवान श्री कृष्ण को इस बात का ज्ञान हुआ. वह स्वयं वहां आए और उन्होंने शुक को आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा.
श्री कृष्ण से मिले वरदान के बाद ही शुक ने गर्भ से निकल कर जन्म लिया. जन्म लेते ही शुक ने श्री कृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम किया और तपस्या के लिये जंगल चले गए.
व्यास जी उनके पीछे-पीछे ‘पुत्र !, पुत्र कह कर पुकारते रहे, किन्तु शुक ने उस पर कोई ध्यान न दिया. व्यास जी चाहते थे कि शुक श्रीमद्भागवत का ज्ञान प्राप्त करें.
किन्तु शुक तो कभी पिता की ओर आते ही न थे. व्यास जी ने एक युक्ति की. उन्होंने श्री कृष्ण लीला का एक श्लोक बनाया और उसका आधा भाग शिष्यों को रटा कर उधर भेज दिया जिधर शुक ध्यान लगाते थे.
एक दिन शुकदेव जी ने भी वह श्लोक सुना. वह श्री कृष्ण लीला के आकर्षण में खींचे सीधे अपने पिता के आश्रम तक चले आए.
पिता व्यास जी से ने उन्हें श्रीमद्भागवत के अठारह हज़ार श्लोकों का विधि वत ज्ञान दिया. शुकदेव ने इसी भागवत का ज्ञान राजा परीक्षित को दिया, जिस के दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु के भय को जीत लिया। ततत्पश्चात अश्वस्थामा के द्वारा सोते हुये द्रोपती के पांचो पुत्रो का बध की कथा , सुभद्रा के गर्भ मे पल रहे परीक्षित व सभी पांडवो की निशानी समाप्त करने के उददेश्य से ब्रम्हास्त छोडा । आदि कथा सुनाई ।गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया।अश्वत्थामा परेशान हो गया। सोच में पड़ गया क्या करे और क्या न करे? अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ही ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया।
जब आपने कुकर्म किया हो, तब ईश्वर भी आपका साथ नहीं देते हैं। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था।
उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैंभक्तजनों की रक्षा करो।अर्जुन ने आगे कहा, श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं।
अर्जुन ने इसके अलावा ये भी कहा कि हे प्रभु! आप ही ब्रह्मस्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं।
इसके साथ ही अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से पूछते हैं कि आप ही बताइए कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहां से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?
भगवान श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर छोड़ा है। यह सुनकर अर्जुन को झटका लगा।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को आगे यह कहते हुए सचेत किया कि इस ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में हैं तथा इससे एक रोचक बात भी जुड़ी हुई है।वो रोचक बात यह है कि अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। तथा यही वह पेंच है जो इसका तोड़ भी हो सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसका समाधान यह बताया कि इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्योंकि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।
श्रीकृष्ण की इस मंत्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने बिना किसी समय को जाया करते हुए फ़ौरन आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया।
दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गए और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी।
इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बांध लिया।
श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोए हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसलिए धैर्य रखो।
भगवान कृष्ण ने कहा, इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोए हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। यदि यह जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आदेश दिया कि तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो। तनिक देर मत करो।
श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया।
द्रौपदी ने कहा छोड़ दीजिए इसको पशु की तरह बंधे हुए गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उन्होंने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं।
ब्राह्मण सदा पूजनीय है द्रौपदी ने आगे बोला, ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है
ऐसा जानिए कि पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेंगी।
पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुईं। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनका वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिए।
द्रोपती की बात सुनकर क्रोधित हुए भीम द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उनकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ तथा वह काफी क्रोध में आ गए इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। सब यह देख कर अचंभित हो गए।
मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया।अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया। तथा द्रौपदी के पुत्रों की हत्या का बदला ले लिया। आदि कथा सुनाई । कथा सुनकर श्रोताओं ने भक्ति रस का पान किया।