सोनभद्र।सबसे पहले स्पष्टीकरण सोनभद्र से सोनांचल क्यों ? क्यों कि यह कथा केवल सोनभद्र की ही नही पूरे उस अंचल की है जिसमें सोनभद्र ,चंदौली , मिर्ज़ापुर ,कुछ हिस्सा इलाहाबाद का भी आता है जो अवैध क़ब्ज़ों ,अधूरे ,लापता व भ्रामक भू अभिलेखों ,बड़े बड़े काश्तकारों , लाल झन्डा, लाल सलाम , सामन्तवाद, नक्सलवाद ,अनियोजित औद्योगीकरण आदि अन्योनाश्रित समस्याओं से जकड़ा पड़ा है।
अब सबसे पहले बात सोनभद्र प्रकरण की ।स्वतन्त्रता के बाद ज़मींदारी उन्मूलन के क़ानूनों व राजा रजवाड़ों के समापन के दौरान सम्बन्धित क़ानूनों की कमियों का लाभ उठाकर तत्समय ज़मीनों को बचाने ,निपटाने या अर्जित करने की अन्धाधुन्ध चल रहे दौर में बडहर स्टेट के स्वामी शाह परिवार से उस समय के बिहार के एक राजनैतिक व प्रशासनिक रूप से ताक़तवर परिवार ने अपने एक दर्जन परिजनों की सहकारी समिति बना ली और ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून के अध्याय 11 का लाभ लेकर लगभग 1200 बीघे ज़मीन बडहर स्टेट से पट्टे पर समिति के नाम ले ली ।परिवार ज़मींदार बन गया और स्टेट को भी लाभ मिल गया ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम का यह प्रावधान 1966 तक चला ।1966 में उ०प्र० सहकारी अधिनियम के प्रस्तर 11 द्वारा सहकारी कृषि को भूमि विधि से अलग करते हुये सहकारी विधि के अधीन कर दिया गया ।तब तक इस प्रावधान का कु-उद्देश्य भी पूरा हो गया था ।यह भी संज्ञान में आया है कि इस समिति का रिनुअल भी 1968 के बाद नहीं कराया गया पर समिति चलती रही खेती होती रही ।यह 1200 बीघे ज़मीन कभी भी खुदकाश्त नहीं रही हमेशा से बँटाई पर स्थानीय निवासी ही जोतते बोते रहे ।कहने का मतलब यह कि भूमि रेवेन्यू अभिलेखों में अदलती बदलती रही पर खेती करने वाले पुश्त दर पुश्त वही स्थानीय काश्तकार ही रहे।1989 में समिति के दो निकट सम्बन्धी सदस्य सहकारिता अधिनियम 1965 के भाग 11 की धारा 82 के अधीन अपने हिस्से की 72- 72 बीघे ज़मीन समिति से मुक्त कराकर स्पष्ट तौर पर भूमिधर हो गये ।यही 144 बीघे ज़मीन ही सारे काण्ड की जड़ में है। मालिकान IAS की पत्नी ,पुत्री थे लिहाज़ा ख़ुद खेती असम्भव थी ,यहीं से प्रवेश हुआ यज्ञदत्त भुरतिहा यानी वर्तमान प्रधान का ,जिसने यहाँ की सारी व्यवस्स्था ,बँटाई पर देना ,हिस्सा वसूलना , लगान का भुगतान ,मुक़दमों की पैरवी आदि आदि संभाल ली मालिकों का concern केवल यज्ञदत्त द्वारा दिल्ली तक पहुँचाई जाने वाली धनराशि तक ही था, मौक़े का मालिक यज्ञदत्त ही था।यह क्रम अबाध गति से 2017 तक चलता रहा खेती होती रही बँटाई मिलती रही पर तभी दिल्ली में बैठे मालिकान ने ज़मीन बेचने की सोची ।ज़मीन उपजाऊ ,प्लेन और बंधी से सिंचित थी ,प्रधान में एक लाख रुपये बीघे का offer दिया जो काफ़ी कम था पर मालिकान मान गये और 14400000 में 2017 मे प्रधान नें अपने व परिजनों के नाम बैनामा करा लिया ज़मीन पर दाखिल ख़ारिज भी हो गया ज़मीन क़ानूनी तौर पर यज्ञदत्त पक्ष की हो गई । यहाँ से पूरे मामले का एक अनछुआ पहलू सामने आता है जिसे किसी ने नही देखा ।
इस ज़मीन का मालिक बनते ही प्रधान की हैसियत जो पहले से ही बहुत बढ़ी हुई थी कई गुना बढ़ गई ।गाँव मे ही प्रधान का एक मज़बूत धुर विरोधी पक्ष भी था जो प्रधान का स्वजातीय व रिश्तेदार भी था।बढ़ी हैसियत से नाराज़ उसने आदिवासियों को ज़मीन मिलने का सपना दिखाकर दिखाकर पहले तो बँटाई का हिस्सा देना बन्द कराया फिर दाखिल ख़ारिज के ख़िलाफ़ DM के यहाँ अपील कराई जो गोंड बंटाईदारों के पास कोई सबूत न होने व ख़तरा खतौनी लगान सब क्रेता विक्रेता के नाम होने के कारण निरस्त हो गई।ज़मीन पर काश्तकार ही क़ाबिज़ रहे ,प्रधान क़ब्ज़ा लेने के लिये प्रयासरत रहा ,लगभग डेढ़ लाख रूपये पुलिस बल के लिये जमा किये पर कुछ नही हुआ ,शायद पुलिस में 145 की रिपोर्ट भी दी उसे SDM वें ख़ारिज कर दिया हर तरह से फ़ेल प्रधान ने बहुत ग़लत निर्णय ज़बरन क़ब्ज़ा लेने का लिया ,शायद उसे इतने गम्भीर परिणामों की आशंका भी नही रही होगी ,यह भी सच है कि शुरुआती झड़प में आदिवासी काश्तकार ही भारी पडे फिर फ़ायरिंग शुरू हो गई और परिणाम सामने है ।मज़े की बात यह है कि आदिवासियों को भड़काने वाले सज्जन को स्थानीय पुलिस नें स्वजातीय व रिश्तेदार होने के नाते मुलज़िम बनाकर जेल भेज दिया व बन्दूक़ ,ट्रैक्टर ज़ब्त कर लिया है।मेरी स्थानीय लोगों से मिली जानकारी के मुताबिक़ सही या ग़लत अन्तर्कथा यही है।