भोलानाथ मिश्र/सर्वेश कुमार
सोनभद्र। संत रविदास ने अपने जीवनकाल में एक कर्मयोगी की भांति निष्काम भाव से जन्म के आधार पर जातिगत कर्म का निर्वाह भी किया और प्रभु के लिए समर्पित भाव से जीने का संकल्प भी पूरा किया। माघ पूर्णिमा संवत 1433 के रविवार के दिन काशी के पास शिर गोवर्धन गांव में जन्में रविदास रामानंद के शिष्य थे। साखी में रविदास ने रामानंद को अपना गुरु स्वीकार किया है। “रामानंद मोहिं गुरु मिल्यो, पायो ब्रह्मविसास” रविदास ने जन्म और जाति की बगैर चिंता किए जीवन पर्यंत जूता बनाना और भजन करना ही अपना श्रेष्ठ और पवित्र कर्म माना। “रविदास जन्म के कारने, होत न
कोऊ नीच, नर को नींच करि डारि हैं, ओछे करम को कीच”। वे अपने जीवनकाल में एक कर्मयोगी की भांति निष्काम भाव से जातिगत कर्म का निर्वाह भी किया और प्रभु के लिए समर्पित भाव से जीने का संकल्प भी पूरा किया। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ प्रकरण में उनकी साधना परिलक्षित हुई थी। संत रविदास की सामाजिक चेतना उनके गरिमामयी व्यक्तित्व के आलोक में ही मुखरित होती है। किसी युग के सामाजिक मूल्यों की परख के लिए सामान्य जन जीवन का ज्ञान बेहद आवश्यक हुआ करता है। रविदास के अनुसार धर्म का संबंध कर्म से ही है। वह ऐसे धर्म के प्रति प्रतिबद्ध है, जो कर्म के लिए प्रेरित करे। धर्म जो अपने स्वरूप में सहज हो, सरल हो , सीधा हो , जन सामान्य के समझ में आने योग्य हो , समाज के लिए हितकारी हो, समाज को सचेतन और जागृत करने वाला हो, समता समानता का पोषक हो, छल छद्म से अलग हो। संत रविदास ऐसे धर्म को चाहते थे जो स्वार्थ से परे हो, भूखे नंगो को सुरक्षा प्रदान करता हो, जो समाज के खोखलेपन को खत्म करता हो, सामाजिक दुर्वयवस्था को समाप्त करने वाला हो, गरीबों की रोटी का आधार बनता हो। रविदास ऐसे ही धर्म के पक्षधर थे “ऐसा चाहौ राज्य में, जहां मिले सभन को अन्न, छोटा बड़ा सब संग बसै, रविदास रहें प्रसन्न”। संत रविदास की भक्ति हमको एक ऐसी आध्यात्मिकता से संबद्ध कर देती है जहां दार्शनिक धरातल पर भी उनकी व्याख्या सहज हो जाती है रविदास केवल भक्त हैं। वे भक्ति या साधना द्वारा मोक्ष प्राप्ति के आकांक्षी नहीं हैं, बल्कि अपनी भक्ति के द्वारा वह लोक कल्याण के पक्षधर हैं। संत रविदास को तत्कालीन समाज की पीड़ा की पहचान थी। संत की परिभाषा को वे सही अर्थों में जानते थे। अपनी भक्ति को वह व्यवहारिक जीवन से जोड़ कर दुःख दर्द बांटने के आकांक्षी थे। उन्होंने समाज के सजग प्रहरी के रूप में तत्कालीन विषाक्त परिवेश को समाप्त करने के क्रम में धर्म की नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने जनहित में अपनी वाणी द्वारा एक नयी लोक भूमि तैयार करने की कोशिश की। संत रविदास ने अपनी काव्य रचना में प्रतिकात्मक ढंग से लाक्षणियता का भी प्रयोग किया है। उन्होंने प्रतिकात्मक ढंग से ही बिंबो का भी सहारा लिया है। इस संदर्भ में इनकी एक प्रसिद्ध पंक्ति प्रस्तुत है।
“प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती। प्रभु जी तुम मोती हम धागा, जैसे सोने मिले सुहागा”।