वह भी क्या दिन थे जब गांवों में आपसी प्रेम, सद्भाव और भाईचारे की दिखती थी बेमिसाल झलक
(प्रस्तुत है गांव गिराव की पुरातन संस्कृति पर हमारे विशेष संवाददाता भोलानाथ मिश्र की रिपोर्ट)
सोनभद्र। कल और आज में कितना अंतर आ गया है इसे 50 साल पीछे से ही देखा जाय तो धुंधली ही सही एक सुनहरी तस्वीर हर 60 प्लस की उम्र वाले लोगों के
जेहन में थिरकने लगेगी ।
वो भी क्या दिन थे जब आषाढ़ के महीने में बहते ‘भुइ सोहरी’ बयार के बीच झोलई बड़का बाऊ की ‘छान्ह चढ़ाने’ गांव के दर्जनों लोग सिवान में मील भरसरिया – भुसऊल तक नंगे पाँव चले जाते थे । धरन , बड़ेर चढ़ाने के लिए घरभरन , समइ , लोरिक जरूर बुलाये जाते थे।
वह भी क्या जमाना था जब किसी एक के घर बेटी के विवाह की साइत पड़ जाती थी तो पूरे गांव के लोग तैयारी करते थे । मटिखाने से मिट्टी लाकर चूल्हि चूल्हा , घर की
गोबरी और पियरी मट्टी से पोताई पास पड़ोस की महिलाएं 15 दिन पहले से ही जुट कर करने लगती थीं । चाउर , दाल छांटने , जौ की गुरी कूटने , दाल दरने , जाँत से बेसन पीसने , कोल्हू से कडुआ व तीसी ,तिल्ली का तेल पेराने के लिए गांव के लोग सक्रिय रहते थे । हर घर से खटिया , बिस्तर ,लालटेन इकठ्ठा की जाती थी । बारात के लिये गांव गांव से गैस (पेट्रोमैक्स) बिछावन , जाजिम मंगनी आता था । पंचमेर मिठाई बनाने के लिए हलुआई आते थे ।कोहड़ा की बर्फी , इमिरती , पेठा , लड्डू और बालू शाही बड़े लोगों के यहाँ पानी पनिवट के समय द्वारपूजा के समय शाम को मिलता था तो क्षेत्र में स्वागत सत्कार की चर्चा होती थी । मध्यम वर्ग में सरबत पानी , गरीबों के यहाँ गुड़ पानी , चिन्नी पानी से ही घराती- बराती का स्वागत सत्कार होता था । 1960 के दशक में सम्पन्न लोगों के बरात में भांड, नौटँकी , नटुआ , कोल दहकी , बड़ी ढोल , मसकबेन , आदि की व्यवस्था रहती थी । भांड की नाच देखने के लिए दूर दूर के गांव से लोग जुटते थे । हांथ से लिखा न्योता हल्दी छिड़क हुआ नाऊ गांव गांव बांटते थे। । गांव के पढ़े लिखे लोग बैठकर न्योता लिखते थे । पुती लिपि मिट्टी की दीवार पर भित्ति चित्र बनाये जाते थे । माड़ो छाने के लिए जंगल से परास का पत्ता और लकड़ी लाने गांव के लोग जंगल जाया करते थे । कोहराने से पुरवा , परई , नेवहड़ , चरुई , ठिल्ली , कुंडा लेने के लिए लोग झुंड बनाकर जाते थे । पत्तल दोना लेने जंगल जाना पड़ता था । बरातियों घरातियों को जमीन पर बैठकर पत्तल पर भोजन परोसने के लिए गांव के लोग देर रात तक सक्रिय रहते थे । बड़हार के दिन सिद्धा बंटने के बाद बराती पूरे गांव में फैल जाते थे । किसी के दलान में तो किसी के कुंए के बगीचे में तो किसी के घर में चरुई में भात , ठिल्ली में दाल अहरा पर बनाते थे । चैतुआ भांटा , कटहल आदि तरकारी बनती थी । कपड़ा निकाल कर लोग पत्तल पर दुपहरी में आनंदपूर्वक भोजन करते थे । शाम को ठंढाई , बेल
के सरबत से बरातियों की विदाई होती थी ।…वो भी क्या दिन थे जब दशहरा के बाद लोग बछवा निकालने के लिए गोहड हांकते थे । नया चरवाहा आने तक गोरु चराना पड़ता था । हरायत की शुरुआत होने पर हरवाहो – चरवाहों को गुरूम पूरी खिलाना पड़ता था । चिठ्ठी आने का इंतज़ार , पोस्टमैन को देखते ही उत्सुकता , समधी दामाद के आने पर भोजन के समय गाली गाने की परंपरा अपने आप में आकर्षण के केंद्र में थी । एक घर का मेहमान पूरे गांव का मेहमान हुआ करता था । कही स्नान , तो कही जलपान तोकही भोजन । वो भी क्या दिन था जब गांव की बेटी के गवाना की साइत रख दी जाती थी तब मुहल्ले के हर घर से एक एक दिन दावत होती थी । एक सप्ताह पहले ही आज इनके घर तो कल उनके घर से दावत दी जाती थी । किसी के घर उर्द की बरी की दावत होती थी तो किसी के घर कतरा कलौजी तो किसी के घर पूड़ी कचौड़ी तो किसी के घर दल घुसेरी पूरी गुरम तो किसी के घर रिकवछ , रसाज , धूस्का तो किसी के घर बजका की दावत दी जाती थी ।याद आती है गर्मी के महीने की वे राते जब हर घर के बाहर खटिया बिछ जाती थी । हर खटिया के पास एक एक लठ्ठ रखा रहता था । लोटा का पानी और कही कही लाईट रहा करती थी । चांदनी रात में खुले आसमान के नीचे खटिया पर बैठे बैठे लोग कहनी ,खिस्सा , बुझौअली , बिरहा , लोरिकी , दृष्टिकुट , घाघ की कहावतें , लावणी छंद , रामलीला के संवाद , क्षेत्र पठ की घटनाएं ,शादी विवाह पद पंचायत की चर्चा बतकही आदि देर रात तक होती रहती थी । मेहमानों के साथ बतकही देर तक होती रहती थी । वह भी क्या दिन थे जब गांव में किसी पक्के मकान की छत पर मुहल्ले भर का पापड़ , अचार , धोया हुआ अनाज आदि सूखते थे । कोहड़ौरी , अदौरी , बिजौरी ,तिलौरी आदि खटिया पर डाली जाती थीं । कहने का तात्पर्य यह है कि गांव की वह परस्पर प्रेम और सौहार्द की गवई संस्कृति का धीरे-धीरे लोप होता गया और आज वह संस्कृति इस कगार पर पहुंच गई है कि हमारे आपके बीच से वह पूरी तरह से विलुप्त सी हो गई।