काशी में विश्वप्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट की मसाने की होली..

पुरुषोत्तम चतुर्वेदी की रिपोर्ट

वाराणसी।महादेव शिव की यह लीला रंगभरी एकादशी के ठीक बाद अगले दिन मनाने की परंपरा रही है। सुबह ही महाश्‍मशान मणिकर्णिका घाट जहां युगों से चिताओं की आंच ठंडी नहीं पड़ी वहां रंग पर्व का उत्‍साह छलक पड़ा। धधकती चिताओं के बीच महाशमशान मणिकर्णिका घाट पर चिता भस्म से होली खेलने मान्‍यता है खुद अड़भंगी भगवान शिव आते हैं। देशभर में 29 मार्च को रंगों का त्योहार होली खेली जाएगी। होली की शुरूआत मथुरा और काशी में हो चुकी है। मथुरा में इसकी शुरूआत लड्डू होली से होती है। वहीं काशी विश्वनाथ में चिता भस्म की होली होती है। जी हां यहां पर जली हुई चिता की राख के साथ होल खेली जाती है। हरिश्चंद्र घाट पर पूरे साल मातम का माहौल रहता है। साल में एक दिन लोग यहां पर रंगो और भस्म के साथ हर्षो उल्लास के साथ पर्व को मनाते हैं। भस्म होली के बाद ही काशी में रंगों की होली खेली जाती है। होली के चार दिन पहले यानी कि, रंगभरी एकादशी पर सबसे बड़े मुक्तिधाम पर खेली गई होली की के पीछे प्राचीन मान्यता है। कहा जाता है कि जब रंगभरी एकादशी के दिन भगवान विश्वनाथ मां पार्वती का गौना कराकर काशी पहुंचे तो उन्होंने अपने गणों के साथ होली खेली थी। लेकिन वो अपने प्रिय श्मशान पर बसने वाले भूत, प्रेत, पिशाच और अघोरी के साथ होली नहीं खेल पाए थे। इसीलिए रंगभरी एकादशी से विश्वनाथ इनके साथ चिता-भस्म की होली खेलने महाश्मशान पर आते हैं।

कहते हैं साल में एक बार होलिका दहन होता है, लेकिन महाकाल स्वरूप भोलेनाथ की होली रोज होती है। फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को भगवान भोलेनाथ अपने औघड़ रूप में काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच चिता की भस्म की होली खेलते हैं। महाश्मशान पर एक तरफ जहां चिताएं जलती रहती हैं वहीं फ़िजाओं में डमरू की गूंज और हर-हर महादेव की अनगूंज भी सुनाई देती रहती है। भांग, पान और ठंडई की जुगलबंदी के बीच अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़ बाजी के बीच हर कोई एक दूसरे को मणिकर्णिका घाट का भस्म लगाता है। इस मौके पर विदेशी सैलानी भी जम कर इसका आनंद लेते हैं।

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