जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से पुनर्जन्म की मान्यता में विश्वास क्यों?

धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से पुनर्जन्म की मान्यता में विश्वास क्यों?



हमारे धर्मशास्त्रों, अगणित आप्त वचनों में आत्मा के पुनर्जन्म लेने की बात कही गई है। मृत्यु के साथ शरीर की समाप्ति भौतिक मान्यता है, लेकिन आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार आत्मा की अमरता का एक प्रमाण पुनर्जन्म है। भारत में समय-समय पर समाचार पत्रों में प्रकाशित घटनाओं के माध्यम से पुनर्जन्म के उदाहरणों का विवरण मिलता रहता है, जिसमें पिछले जन्म की स्मृतियों को प्रामाणिक करके अनेक लोग इस तथ्य के यथार्थ को सिद्ध करते हैं। पुनर्जन्म की घटना को विज्ञान की भाषा में पैरानामोल फिनामिना भी कहा जाता है।

प्रायः संचित संस्कारों के अनुरूप ही दिवंगत आत्माएं नया शरीर धारण कर पुनर्जन्म लेती हैं। इस बंध में हमारे शास्त्रों में विस्तृत विवरण मिलता है।

महाभारत वनपर्व 209.32 अर्थात् प्राणी शुभ कर्मों से देव योनि को प्राप्त होता है और मिले-जुले (पाप-पुण्यमय) कर्मों से मनुष्य योनि को प्राप्त होता है।

शुभैः प्रयोगैर्देवत्वं व्यामिश्रैम्मानुषो भवेत् ।

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ -कठोपनिषद् 227

अर्थात् अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कोई देहधारी शरीर धारणार्थ विशिष्ट योनि को प्राप्त होते हैं और अन्य कोई देहधारी स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं।

एहिकं प्रोक्तनं वापि कर्म यदचितं स्फुरन् । पौरषोऽसो परो यत्नो न कदाचन निष्फलः ॥

-योगवासिष्ठ

अर्थात् पुनर्जन्म और इस जन्म में किए हुए कर्म, फल के रूप में अवश्य प्रकट होते हैं, क्योंकि मनुष्य के द्वारा किए हुए कर्म, फल लाए बिना नहीं रहते हैं।

क्लेशमूलः कर्मोशयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः। सतिमूले तद्विपाको जात्यायुभोगाः ॥

-पातंजलियोगसूत्र 2 12-13

अर्थात् यदि पूर्वजन्म के संचित संस्कार या कर्म अच्छे हैं, तो उत्तम जाति, आयु और योग प्राप्त होते हैं। जब मनुष्य शरीर का त्याग करता है, तब इस जन्म की विद्या, कर्म और पूर्व प्रज्ञा, आत्मा के साथ ही चली जाती है, उसी ज्ञान और कर्म के अनुसार उस जीवात्मा का जन्म होता है। तदनुसार उसके संस्कार नवीन जीवन में प्रकट होने लगते हैं।

आशापाशा शताबद्धा वासनाभाव धारिणः। कायात्कायमुपायान्ति वृक्षाद्वृक्षमिवाण्डजा ॥

अर्थात् मनुष्य का मन सैकड़ों आशाओं (महत्वाकांक्षाओं) और वासनाओं के बंधन में बंधा हुआ मृत्यु के उपरांत उन क्षुद्र वासनाओं की पूर्ति वाली योनियों और शरीर में उसी प्रकार चला जाता है, जिस प्रकार एक पक्षी एक वृक्ष को छोड़कर फल की आशा से दूसरे वृक्ष पर जा बैठता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ श्रीमद्भगवद्गीता 8/6

अर्थात् यह मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, सदा उसी भाव से भावित होने के कारण उस भाव को ही प्राप्त होता है।

पुराणों में भागवत, विष्णु, अग्नि, मार्कण्डेय और देवी पुराण में अनेक कथाओं और घटनाओं के जरिए पुनर्जन्म को सिद्ध किया गया है। महर्षि वाल्मीकि और संत तुलसीदास ने रामायण में कई स्थलों पर पुनर्जन्म का रोचक वर्णन किया है।

एक बार मनु से शतरूपा ने पूछा-‘भगवन्! मनुष्य को अन्यान्य योनियों में क्यों भटकना पड़ता है? कई बार मानव योनि पाकर भी मुक्त होने के स्थान पर फिर पदच्युत कर दिया जाता है, ऐसा क्यों? मनु बोले-शारीरिक पाप कर्मों से जड़ योनियों में जन्म होता है। वाणी के पाप से पशु-पक्षी बनना पड़ता है। मानसिक दोष करने वाले मनुष्य योनि से बहिष्कृत हो जाते हैं। इस जन्म के अथवा पूर्वजन्म के किए हुए पापों से मनुष्य अपनी अस्वाभाविकता खोकर विद्रूप बनते हैं।

जब महाराज प्रद्युम्न का स्वर्गवास हो गया, तो पूरे परिवार में कुहराम मच गया महर्षि कौत्स पुनर्जन्म विज्ञान के ज्ञाता थे। उन्हें बुलाया गया और कहा, ‘राजा जिस रूप में भी हों, हम उनका दर्शन करना
चाहते हैं। राजा काष्ठ कीट हो गए थे। उनका छोटा-सा परिवार भी बन गया। कीड़े को पकड़ने का प्रयत्न किया गया, तो उसने कहा कि मुझे मत छेड़ो, मैं अब इसी योनि में प्रसन्न हूं। नए मोह ने मेरा पुराना मोह समाप्त कर दिया है। सांसारिक संबंध शरीर रहने तक ही है।”

इस प्रकार देखें, तो हमें पुनर्जन्म के धार्मिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक व दार्शनिक आधारों का विवरण मिलता है। परामनोवैज्ञानिक डॉ. रैना रूथ ने पदार्थगत रूपांतरण को ही पुनर्जन्म माना है। उन्होंने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि पदार्थ एवं ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा नष्ट नहीं होती, भले ही रूपांतरित व अदृश्य हो जाए। उनके मतानुसार डी.एन.ए. मृत्यु के बाद भी संस्कारों के रूप में अदृश्य अवस्था में रहते हैं और नए जन्म के समय फिर से प्रकट हो जाते हैं। हमें जो विलक्षण प्रतिभाएं देखने को मिलती हैं, वे पूर्वजन्म के संचित ज्ञान का प्रतिफल होती हैं। पुनर्जन्म की यादें, पूर्वाभास होना, भविष्य ज्ञान की अतींद्रिय क्षमता, विलक्षणताएं इन्हीं संचित संस्कारों का शुभ परिणाम होती हैं। इस प्रकार कह सकते हैं कि पुनर्जन्म पुनरावर्तन नहीं, बल्कि जीवात्मा इस जन्म के संचित संस्कारों को लेकर ही अगला जन्म लेती है। उल्लेखनीय है कि जींस (डी.एन. ए.) में पूर्वजन्म के या पैतृक संस्कार मौजूद रहते हैं और इसकी संरचना में प्रकाशीय भाग ही प्राण कहलाता है ।
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