जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गुरुनानक देव 552 वां प्रकाशोत्सव विशेष

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गुरुनानक देव 552 वां प्रकाशोत्सव विशेष



गुरुनानक जी सिखों के प्रथम (आदि )गुरु हैं। इनके अनुयायी इन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु – सभी के गुण समेटे हुए थे।

नानक जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा, संवत् 1527 अथवा 15 अप्रैल 1469
राय भोई की तलवंडी, (वर्तमान ननकाना साहिब, पंजाब में रावी नदी के किनारे स्थित गांव में कार्तिकी पूर्णिमा को एक खत्रीकुल में हुआ था। कुछ विद्वान इनकी जन्मतिथि 15 अप्रैल, 1469 मानते हैं। किंतु प्रचलित तिथि कार्तिक पूर्णिमा ही है, जो अक्टूबर-नवंबर में दीवाली के 15 दिन बाद पड़ती है।

इनके पिता का नाम मेहता कालू जी था, माता का नाम तृप्ता देवी था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इनकी बहन का नाम नानकी था।

बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। लड़कपन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा। 7-8 साल की उम्र में स्कूल छूट गया क्योंकि भगवत्प्रापति के संबंध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली तथा वे इन्हें ससम्मान घर छोड़ने आ गए। तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएं घटी जिन्हें देखकर गाँव के लोग इन्हें दिव्य व्यक्तित्व मानने लगे। बचपन के समय से ही इनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गाँव के शासक राय बुलार प्रमुख थे।

इनका विवाह बालपन मे सोलह वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ था। 32 वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत 1507 में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पडे़।

ये चारों ओर घूमकर उपदेश करने लगे। 1521 तक इन्होंने चार यात्राचक्र पूरे किए जिनमें भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थानों का भ्रमण किया। इन यात्राओं को पंजाबी में “उदासियाँ” कहा जाता है।

नानक सर्वेश्वरवादी थे। उन्होंने सनातन मत की मूर्तिपूजा की शैली के विपरीत एक परमात्मा की उपासना का एक अलग मार्ग मानवता को दिया। उन्होंने हिंदू धर्म मे फैली कुरीतिओं का सदैव विरोध किया । उनके दर्शन में सूफीयोंं जैसी थी । साथ ही उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर भी नज़र डाली है। संत साहित्य में नानक उन संतों की श्रेणी में हैं जिन्होंने नारी को बड़प्पन दिया है।

इनके उपदेश का सार यही होता था कि ईश्वर एक है उसकी उपासना हिंदू मुसलमान दोनों के लिये हैं। मूर्तिपुजा, बहुदेवोपासना को ये अनावश्यक कहते थे। हिंदु और मुसलमान दोनों पर इनके मत का प्रभाव पड़ता था।

जीवन के अंतिम दिनों में इनकी ख्याति बहुत बढ़ गई और इनके विचारों में भी परिवर्तन हुआ। स्वयं ये अपने परिवारवर्ग के साथ रहने लगे और मानवता कि सेवा में समय व्यतीत करने लगे।

उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर आश्वन कृष्ण 10, संवत् 1597 (22 सितंबर 1539 ईस्वी) को इनका परलोकवास हुआ।

मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए।

नानक अच्छे सूफी कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा “बहता नीर” थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी के शब्द समा गए थे।

गुरुनानक जी के जीवन से जुड़ी कुछ चमत्कारिक कथाएं

गुरु नानक देव ने ऐसे दिया एकता का संदेश

गुरु नानक देव परमात्मा के ज्ञान का प्रचार करने जब पहली यात्रा पर निकले तो वे सुल्तानपुर लोधी से लंबा सफर तय करते हुए सैदपुर नगर पहुंचे। यहां एक बाजार था जिसमें एक बढ़ई लकड़ी से वस्तुएं तैयार कर बेचा करता था।

वह बहुत अच्छे स्वभाव का और सेवाभावी व्यक्ति था। नाम था उसका – लालो। उसने नानक जी से निवेदन किया कि वे उसके घर भी पधारें। नानक देव ने उसकी श्रद्धा देखी और निमंत्रण स्वीकार कर लिया। गुरुजी और भाई मरदाना लालो के घर चल दिए।

लालो मेहनत-मजदूरी करने वाला इंसान था। उसका मामूली-सा घर था लेकिन नानकजी को इन बातों से क्या मतलब! वे तो उसका प्रेम देखकर आए थे। लालो ने गुरुदेव की सेवा की और अपनी कमाई से अर्जित बाजरे की रोटी-सब्जी साधारण बर्तन में परोसी।

गुरुजी और भाई मरदाना को इस रूखे-सूखे भोजन में भी स्वादिष्ट पकवानों जैसा आनंद मिला। भोजन के बाद भाई मरदाना ने गुरुदेव से पूछा, यह भोजन दिखने में जितना नीरस जान पड़ता था, सेवन में उतना ही स्वादिष्ट क्यों लगा?

नानक देव ने फरमाया, ये सच्चा इंसान है। इसके दिल में प्रेम है। यह अपनी मेहनत से कमाई करता है। किसी का हक नहीं मारता और उसी कमाई का अन्न इसने हमें परोसा है।

उसी शहर में बहुत अमीर जागीरदार मलिक भागो ने भोज का आयोजन किया। इसके लिए उसने बड़ा भारी यज्ञ किया और शहर के सभी साधु-फकीरों को निमंत्रण भेज दिया। नानक देव के पास भी निमंत्रण आया लेकिन उनकी इच्छा इस भोज में जाने की नहीं थी।

इस भोज के लिए गरीब किसानों से जबरन गेहूं, चावल, दाल और तमाम सामान इकट्ठा किया गया। लोग मना भी नहीं कर सकते थे क्योंकि मलिक भागो का बड़ा नाम था। उसे मना कर कौन मुसीबत मोल लेता?

लेकिन नानक देव को उसकी परवाह नहीं थी। उनके लिए तो सबसे बड़ा नाम मलिक भागो का नहीं बल्कि उनके रब का था। आखिरकार भागो के बहुत प्रयास करने के बाद नानक वहां गए।

वहां मलिक भागो ने गुरुजी से पूछा, आप यहां भोज में क्यों नहीं आए? क्यों लालो के घर सूखे टुकड़े चबा रहे हो?

तब गुरुजी ने मलिक भागो से कहा, आप मेरे लिए कुछ हलवा-पूरी मंगवा दीजिए। मैं अभी इसका रहस्य बता देता हूं।

गुरुजी के लिए हलवा-पूरी मंगाया गया। उसी समय उन्होंने लालो के घर से सूखी रोटी का टुकड़ा भी मंगवा लिया। गुरुजी ने एक हाथ में हलवा-पूरी ली और दूसरे में सूखा टुकड़ा लिया। उन्होंने दोनों को एकसाथ निचोड़ा। तब भागो के हलवा-पूरियों से खून की धार और लालो की सूखी रोटी से दूध की धार बहने लगी। हजारों लोग इस दृश्य को देखकर हैरान रह गए।

नानक देव ने वहां मौजूद लोगों से कहा, भाइयो, ये है धर्म की कमाई, जिससे दूध की धार निकली है और ये है पाप की कमाई, जो खून की धार उगल रही है।

यह दृश्य देखकर मलिक भागो की आंखें खुल गईं। वह गुरुजी के चरणों से लिपट गया। उसने अपनी जिंदगी में अब तक किए गुनाहों के लिए माफी मांगी और जोर-जुल्म की जिंदगी छोड़ दी। अब वह अपनी कमाई नेक काम में खर्च करने लगा।

मक्का में किया चमत्कार

गुरु नानक देव जी ने अपने जीवनकाल में कई जगह की यात्राएं कीं। एक बार नानक देव जी मक्का नगर में पहुंच गए। उनके साथ कुछ मुस्लिम भी थे। जब वह मक्का पहुंचे तो सूरज अस्त हो रहा था। सभी यात्री काफी थक चुके थे।

मक्का में मुस्लिमों का प्रसिद्ध पूज्य स्थान काबा है। गुरु जी रात के समय थकान होने पर काबा की तरफ पैर करके सो गए। काबा की तरफ पैर देखकर जिओन ने गुस्से में गुरु जी से कहा कि तू कौन काफिर है जो खुदा के घर की तरफ पैर करके सोया हुआ है?

इस पर नानक देव जी ने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा, मैं यहां पूरे दिन के सफर से थककर लेटा हूं, मुझे नहीं मालूम की खुदा का घर किधर है तू हमारे पैर पकड़कर उधर कर दे जिस तरफ खुदा का घर नहीं है।

गुरु जी की यह बात सुनकर जिओन को गुस्सा आ गया और उसने उनके चरणों को घसीटकर दूसरी ओर कर दिया। इसके बाद जब उसने चरणों को छोड़कर देखा तो उसे काबा भी उसी तरफ ही नजर आने लगा।
इस तरह उसने जब फिर से चरणों को दूसरी तरफ किया तो फिर काबा उसी और घूमते हुए नजर आया। जिओन ने यह बात हाजी और मुसलमानों को बताई।

इस चमत्कार को सुनकर वहां काफी संख्या में लोग इकट्ठा हो गए। इसे देखकर सभी लोग दंग रह गए और गुरु नानक जी के चरणों पर गिर पड़े। उन सभी ने नानक देव जी से माफी मांगी। जब वह वहां से चलने की तैयारी करने लगे तो काबा के पीरों ने गुरु नानक देव जी से विनती करके उनकी एक खड़ाव निशानी के रूप में अपने पास रख ली।

जब इस घटना के बारे में काबा के मुख्य मौलवी इमाम रुकनदीन को जानकारी हुई तो वह गुरुदेव से मिलने आया और वह उनसे आध्यात्मिक प्रश्न पूछने लगा। वह नानक देव जी से कहने लगा कि मुझे जानकारी मिली है कि आप मुस्लिम नहीं हैं। पूछने लगा कि यहां आप किसलिए आए हैं। गुरुदेव ने कहा कि मैं आप सभी के दर्शनों के लिए यहां आया हूं।
इस पर रुकनदीन पूछने लगा कि हिन्दू अच्छा है कि मुसलमान, इस पर गुरु जी ने कहा कि जन्म और जाति से कोई बुरा नहीं होता। वही लोग अच्छे हैं जो शुभ आचरण के स्वामी हैं। गुरुदेव जी ने कहा कि पैगम्बर उसे कहते हैं जो खुदा का पैगाम मनुष्य तक पहुंचाए। रसूल या नबी खुदा का पैगाम लाए थे।

गुरुनानक देव की ओंकारेश्वर यात्रा
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गुरुनानकदेवजी मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र के नासिक शहर से होते हुए बुरहानपुर आए थे। बुरहानपुर में वे ताप्ती नदी के किनारे ठहरे। वहां से वे ओंकारेश्वर गए और ओंकारेश्वर से इंदौर।

श्री महिपत ने अपनी पुस्तक ‘लीलावती’ में उनकी इंदौर यात्रा का वर्णन किया है। इसके अनुसार पवित्रता के पुंज, प्रेम के सागर गुरु नानक देव जी दूसरी उदासी (यात्रा) के दौरान इंदौर आए। उन्होंने यहां इमली का एक वृक्ष लगाया। यहीं पर गुरुद्वारा इमली साहिब स्थापित है। गुरुदेव ने लोगों को मूर्ति पूजा से रोका और शब्द की महत्ता बताई।

कहते हैं कि जब लोगों ने आदर के साथ उनके चरणों को छूना चाहा तो वे लोग चकित हो गए। उन्हें केवल प्रकाश ही प्रकाश दिखाई दिया। यहां से गुरुनानक देवजी बेटमा की दुःखी जनता का उद्धार करने के लिए वहां पधारे। वहां पर गडरिये रहते थे। उन्होंने गुरुजी का बहुत आदर-सत्कार किया, उनके उपदेश सुने। लोगों ने जब उनके समक्ष पानी के कष्ट के बारे में प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि उस जगह धन्ना करतार कहकर कुदाली से जमीन खोदो। लोगों ने ऐसा ही किया तो वहां पर मीठे पानी का झरना फूट पड़ा। आज वहां पर एक बहुत सुंदर गुरुद्वारा है।

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