धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से रावण – “ब्राह्मण नहीं” था !!!
रावण – “ज्ञानी भी नहीं” था !!!
कारण
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
कर्मों की सिद्धि चाहनेवाले अर्थात् फल प्राप्ति की कामना करनेवाले मनुष्य इस लोक में इन्द्र, अग्नि आदि देवों की पूजा किया करते हैं। ऐसे उन भिन्न रूप से देवताओं का पूजन करने वाले फलेच्छुक मनुष्यों की इस मनुष्य लोक में कर्म से उत्पन्न हुई सिद्धि शीघ्र ही हो जाती है; क्योंकि मनुष्य लोक में शास्त्र का अधिकार है।
“क्षिप्रं हि मानुषे लोके” इस वाक्य में क्षिप्र विशेषण से भगवान् अन्य लोकों में भी कर्मफल की सिद्धि दिखलाते हैं पर मनुष्य-लोक में ही वर्ण-आश्रम आदि के कर्मों का अधिकार है, यह विशेषता है।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय – ४, श्लोक – १२)
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों का नाम चातुर्वर्ण्य है i सत्व, रज, तम – इन तीन गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण मुझ ईश्वर द्वारा रचे हुए – उत्त्पन्न किये हुए हैं i इस प्रकार, गुण और कर्मों के विभाग से चारों वर्ण मेरे द्वारा उत्पन्न किए गए हैं, यह अभिप्राय है I यद्यपि मायिक व्यवहार से मैं उस कर्म का कर्ता हूँ, तो भी वास्तव में मुझे अकर्ता ही जान तथा इसीलिए मुझे अव्यय और असंसारी ही समझ I
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय – ४, श्लोक – १३)
राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस जाति के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।
पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कु-बेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुन कर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुन कर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा, तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।
इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव (रावण) रखा गया। उसके पश्चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुए। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था।
रावण का जन्म मनुष्य योनि में नहीं हुआ था। माता कैकसी की योनि यानी राक्षस योनि रावण को प्राप्त था। अतः रावण एक राक्षस था।
भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं कि सत्व, रज, तम – इन तीन गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मेरे द्वारा केवल मनुष्यों के लिए रचे हुए – उत्पन्न किये हुए हैं।
रावण परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा का पुत्र अवश्य था किंतु राक्षस योनि में होने के कारण – मनुष्य योनि “नहीं” प्राप्त होने के कारण रावण वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत नहीं था अतः वह ब्राह्मण नहीं था। वैसे भी ब्राह्मण राक्षस, क्षत्रिय राक्षस, वैश्य राक्षस और शूद्र राक्षस आपने भी अवश्य ही कभी नहीं सुना है।
ज्ञानी कौन है? तत्त्ववेत्ता ज्ञानी है। जो ज्ञानी है वह अनिवार्यतः भक्त है। ज्ञानी के सम्बन्ध में लोगों (अज्ञानियों) को भ्रम है कि ज्ञानी भक्त नहीं होता है। वास्तव में ज्ञानी को वियोग नहीं है क्योंकि परमात्मा का ज्ञान होते ही वियोग की संभावना ही मिट जाती है। जब तक ज्ञान नहीं होगा तब तक उल्टे भक्ति ही दिशा बदलती रहेगी। इसी से ज्ञानी की भक्ति विशिष्ट है।
अब, यदि रावण ज्ञानी था तो उसे भगवान् का भक्त अनिवार्यतः होना चाहिए था। लेकिन, उसे तो भगवान् से शत्रुता थी। अतः वह ज्ञानी नहीं था यह सिद्ध हुआ। रावण भौतिक विषयों का ज्ञाता था। लेकिन, भौतिक विषयों की उत्पत्ति की भूमि योग-माया है। समस्त भौतिक विषयों की समस्त विद्या का नाम अज्ञान है! अतः रावण अज्ञानी था।
आज-कल राम के सद्गुणों और सद्चरित्र की चर्चा कम और रावण की प्रशंसा ज्यादा हो रही है। समस्त नास्तिक सम्प्रदाय/दर्शन यह साबित करने में तत्पर हैं कि “रावण ब्राह्मण था”, “रावण ज्ञानी था”, “रावण महात्मा था”। अब तो यहाँ तक कहा जाने लगा है कि रावण इसलिए नहीं हारा क्योंकि वह अधर्मी और आततायी था, बल्कि इसलिए हारा क्योंकि उसके भाई ने उसका साथ नहीं दिया। इनके अनुसार, यदि रावण के भाई ने उसका साथ दिया होता तो धर्म/सत्य पर अधर्म/असत्य की जीत होती। भगवान् राम, जिनसे इनका नित्य संबंध है उन्हें इन लोगों ने परे सरका दिया है और जिस आततायी रावण से इनका कोई संबंध नहीं है उसके प्रति मोहित हुए जा रहे हैं। धर्म/सत्य अटल, अपरिवर्तनशील और स्थिर है। जबकि अधर्म/असत्य निर्बल, अस्थिर और नित्य परिवर्तनशील है। अतः किसी भी तरह धर्म/सत्य पर अधर्म/असत्य की जीत संभव नहीं है।