जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गुरु तत्व का रहस्य ?

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गुरु तत्व का रहस्य ?



शास्त्रों में यह धारणा परिपुस्ट की गई है तथा लोगो के विचार में यह धारणा द्रढ. रहती है की गुरू एक ही हो सकता है परन्तु शास्त्रों के गहन अध्धययन से तथा जीवन में घटनाओं के अनुभव से यह पता चलता है गुरू एक नहीं अनेक हो सकते है – श्रीमद्भागवत के अनुसार पर्मावाधूत श्री दत्तात्रेय जी ने २४ गुरू किये थे।

कुलार्णव तंत्र के अनुसार गुरू छ: प्रकार के होते है?

प्रेरक: सूचाकश्चैव वाचको दर्शकश्ताथा I शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरूव: स्मृता: I I

अर्थात प्रेरणा देने वाला ,सूचना ,देने वाला ,वक्ता ,दर्शक ,ज्ञाता शिक्षा देनेवाला ,आत्मवोध कराने वाला ये सव छ: प्रकार के गुरु होते है।
व्यवहारिक जगत मै सवसे पहले माता-पिता गुरु होते है I

पिता से ज्यादा माता नजदीक होती है I इसलिए माँ की जिम्मेदारी शिशु पर अधिक होती है I अत: नारी समाज की शिक्षा दीक्षा नैतिकता पूर्ण होनी चाहिए I जिससे की माँ अपने बच्चो को उचित शिक्षा प्रदान कर सके और हमारे धार्मिक ग्रंथो में एसे कई उदहारण मिलते है I माता मदालसा ,गोपीचंद की माता ,भक्त प्रह्लाद एवं ध्रुव की माताओं ने अपनी प्रतिभा एवं धर्मपूर्ण आचरण एवं ज्ञान की प्रेरणा से अपने पुत्रों को भवसागर से पार करा दिया ।

तत्ववेत्ता माताओ में माता मदालसा का नाम उत्क्रस्ट स्थान पर है इन्होने अपने लोरियों के गीत के माध्यम से अपने छ: पुत्रों को आत्म ज्ञान से भर दिया था जिसके फलस्वरूप वे सव परमनिवृति पूर्वक जीवन-यापन करते हुए अंत में अपने सत्यस्वरुप में लीन हो गए और माता मदालसा ने अपने सातवे पुत्र का नाम अलर्क रक्खा तथा उसको राजनीति की शिक्षा देकर राजनीति के योग्य वनाया और यह भी ध्यान रक्खा की कही ये कही संसार में ही फस कर न रह जाये इस लिए उन्होंने अलर्क के गले में एक ताबीज डालदी और अलर्क से कहा की जव विपत्ति आये तो इसे खोलकर इसके अन्दर लिखी शिक्षा को ग्रहण करलेना इससे तेरा परम कल्याण होगा।

कालांतर में जव अलर्क पर विप्पत्ति आई तो उसने उस ताबीज को खोल कर देखा की उसमे एक कागज के टुकड़े में निम्नलिखित श्लोक लिखे थे।

संगः सर्वात्मनाहेयः सचेत् त्यक्तुं न शक्यते।स सद्भिःसह कर्तव्यः साधुसंगो हि भेषजम्॥

संग/आसक्ति सर्वथा त्याज्य है; पर यदि ऐसा शक्य न हो तो सज्जनों का संग करना । साधु पुरुषों का सहवास जडीबुटी है (हितकारक है) । सभी कामनाओं को छोड़ देना चाहिए यदि सभी कामनाओं को छोड़ने में असमर्थ हो तो मुमुक्षु की कामना करनी चाहिए मुमुक्षु की कमाना संसार की सभी कामनाओं को नष्ट करने की महान औषधि है।

गुरु व्रह्म्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरा ।गुरु साक्षात् परम व्र्हम्म तसमई श्री गुरवे नम: ।।

अर्थात गुरु को व्रह्मा कहा गया है की जिस प्रकार व्रह्मा सकल स्रष्टि को जन्म देता है उसी प्रकार गुरु अपने शिष्य को ग्रहण करके उसमे संस्कारों का प्रत्यारोपण करके उसको नया जन्म देता है,उसे द्विज (द्वि मतलब दूसरा और ज मतलब जन्म ) बनाता है । इस लिए गुरु को व्रह्मा कहा गया है । और जिस प्रकार स्रष्टि का पालन भगवान् विष्णु करते है ।उसी प्रकार गुरु अपने शिष्य का समस्त भार अपने ऊपर ले लेता है इस लिए गुरु को विष्णु कहा गया है।

और भगवान् शंकर इस स्रष्टि का विनाश करते है और उन्ही की भाति गुरु अपने शिष्य में निहित समस्त विकारों का विनाश कर देता है एक प्रकार से वह अपने शिष्य के वर्तमान स्वरूप को समूल नष्ट करके उसका पुनः निर्माण कर देता है इस लिए गुरु को महेश या शिव कहा गया है ।

और एक पूर्ण सतगुरु ही किसी प्राणी को अबगमन के चक्कर से मुक्त कर सकता है इसलिए गुरु को साक्षात् पार व्रह्म परमेश्वर कहा गया है ।

इसको पड़ते ही मन में यह विचार आया कि लिखने वाले ने यह क्या लिख दिया । क्या सचमुच गुरु ऐसा होता है कि उसकी तुलना साक्षात् पार व्रह्म परमेश्वर से कर दी जाये मन ने कहा कि नहीं ये सच नहीं हो सकता तो अपनी नज़र को इधर-उधर दौड़ाया तो पाया कि कबीर दास जी तो यहाँ तक लिख गए है कि :-

सात समुद्र कि मसि करूँ लेखन सब वनराय । सब धरती कागज़ करूँ गुरु गुण लिखा न जाये ।।

लो भाई यह तो हद हो गयी कि गुरु में वह गुण भरे हुए है कि उन्हें लिखा ही नहीं जा सकता है । थोडा सा और गौर किया तो पाया कि नहीं कबीर दास जी तो गुरु को परमेश्वर से भी बड़ा वता रहें है ।

गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागों पायें ।वलिहारी गुरु आपनेगोविन्द दियो मिलाय ।।

जब इस दोहे को ध्यान पूर्वक पढ़ा तो समहज आया की गुरु को इतना महान क्यों कहा गया है । सचमुच यदि गुरु इश्वर से मिला सकता है तो वोह इश्वर से बड़ा ही हुआ । और फिर ध्यान आया की कहीं पर पढ़ा है कि :-
अखंड मंडला कारम व्याप्तं एन चराचरम । तत्पदं दर्शितं येन तसमई श्री गुरवे नम: ।।

अर्थात सर्व व्यापी इश्वर को तत्व रूप में अंतर्घट में ही प्रत्यक्ष रूप से दिखा देने वाला ही पूर्ण सतगुरु होता है और हमें इश्वर दर्शन के लिए उसी पूर्ण सतगुरु कि शरण में जाना चाहिए । इस विषय में वहुत सारे लोग कहते हैं कि हम तो नित्य मंदिर जाते हैं और कई लोग कहते हैं कि हम मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजा घर जाते हैं तो फिर हमे गुरु के पास जाने कि क्या जरूरत है तो इस विषय में हमारे ग्रुन्थ कहते है कि :-

राम कृष्ण से को बड़े तिंहू ने गुरु कीन्ह । तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ।।

अर्थात जब इश्वर चाहें खुद ही क्यों न धरती पर आये तो वोह खुद भी किसी पूर्ण गुरु के पास जाता है क्यों कि वह आपने आचरण के द्वारा मानव के लिए उद्धरण प्रस्तुत करता है कि आप इसी रास्ते पर चलो। किन्तु मानव राम -राम कृष्ण-कृष्ण तो करता है मगार जो राम या कृष्ण ने अपने जीवन में किया वह नहीं करता है।अता : हमें आवश्यकता है ऐसे किसी पूर्ण सत गुरु कि जो हमारे प्रज्ञा चक्षु खोल दे । हमारे दिव्य नेत्र खोल कर हमें हमारे अंतर्घट में ही परमात्मा का साक्षात्कार करा दे ।
अतः हम आशा करतें है कि की अव हमे गुरु तत्व का रहस्य समझ अगया होगा !

Translate »