जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से (ज्योतिष ज्ञान) कुंडली मे विषकन्या योग की परिभाषा……

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से (ज्योतिष ज्ञान) कुंडली मे विषकन्या योग की परिभाषा……



विषकन्या योगों का आंकलन

भौजङ्गे कृत्तिकायां शरतभिषजि तथा सूर्यमन्दारवारे
भद्रासंज्ञे तिथौ या किल जननमियात् सा कुमारी विषाख्या ।
लग्नस्थौ सौम्यखेटावशुभगगनगश्चैक आस्ते ततौ द्वौ
वैरिक्षेत्रानुयातौ यदि जनुषि तदा सा कुमारी विषाख्या ॥

आश्लेषा, कृत्तिका, शरतभिषा नक्षत्रों में, रवि मंगल, शनि वारों में तथा भद्रा तिथियों में (द्वितीया, सप्तमी, द्वादरशी) जिस कन्या का जन्म हो, वह विषकन्या कहलाती है।

यदि लग्न में दो ग्रह हों, जिनमें एक पाप ग्रह व एक शुभ ग्रह हो, दो पाप ग्रह शत्रु क्षेत्र में गए हो। इस योग का नाम भी ‘विषाख्य योग’ है। अर्थात इसमें उत्पन्न कन्या विषकन्या होती है।

योगकारक तिथि-नक्षत्रादि की व्यवस्था
मन्दाश्लेषाद्वितीया यदि तदनु कुजे सप्तमी वरुणार्कक्ष
द्वादश्यां च द्विदैवं दिनमणिदिवसे यज्जनिः सा विषाख्या ।
धर्मस्थो भूमिसूनुस्तनुसदनगतः सूर्यसूनुस्तदानीं
मार्तण्डः सूनुयातो यदि जनिसमये सा कुमारी विषाख्या॥॥

यदि शनिवार, श्लेषा नक्षत्र और द्वितीया तिथि ये तीनों एकत्र हों तो प्रथम योग हुआ। इसी प्रकार मंगलवार, शरतभिषा नक्षत्र और सप्तमी तिथि यह दूसरा योग

रविवार, विशाखा नक्षत्र एवं द्वादरशी तिथि यह तीसरा योग हुआ। अथवा लग्न में शनि व नवम में मंगल स्थित हो और पंचम में सूर्य हो । तो यह चौथा विषकन्या योग हुआ।

विषकन्या योग यथा नाम तथा गुण होते हैं। जिस प्रकार से विष प्राणहरण में सक्षम होता है तथा शरीर व मन को कष्ट देता है, उसी प्रकार से इन योगों में उत्पन्न कन्या पति कुल में विष की तरह व्यापती है।

पाराशर होरा में गया है-

विषयोगोद्भवा बाला मृतापत्या प्रजायते ।
वासोभूषा विहीना च ससन्तापशुचान्विता॥
अर्थात् विषकन्या को मृत सन्तान उत्पन्न होती है और वह वस्त्राभूषणों
से रहित, शोकाकुल होती है।”

श्लोक सं. 1 व 2 में बताए गए तिथि, वार, नक्षत्रों में कुछ समानता है। अतः पाठकों को पुनरुक्ति का भ्रम हो सकता है। लेकिन प्रथम श्लोक में बताए गए तिथि, वार, नक्षत्रों में कुछ लोग तो क्रम मानते हैं, तथा कुछ लोग नहीं मानते हैं। आशय यह है कि जिस क्रम से श्लोक में तिथि, वार, नक्षत्र
बताए गए हैं वे क्रमशः यथासंख्य योग बनाते हैं। यथा-

(i) श्लेषा, रविवार द्वितीया तिथि ।
(ii) कृत्तिका, शनि, सप्तमी तिथि ।
(iii) शतभिषा, मंगल, द्वादशी तिथि ।
उक्त क्रम से योग टीकाकारों ने माने हैं।

श्लोक 2 में प्रोक्त योग में गणेश कवि ने स्वयं ही तिथि, वार, नक्षत्र संयोग का स्पष्टीकरण किया है। हमारा विचार है कि इन योगों में इस प्रकार से क्रम की कल्पना दूर की कौड़ी व अनुमान मात्र ही है। यदि ये योग इसी क्रम में बनते होते तो ग्रन्थों में इसका स्पष्टीकरण होता। अथवा सब जगह तिथि, वारादि का क्रम एक जैसा होता। लेकिन ऐसा नहीं है। यहाँ कुछ उद्धरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं। पाठ्क स्वयं इसकी क्रमिकता का विचार कर लें-

‘भद्रातिथौ जातांगना विषाख्या स्याद् ध्रुवं दुष्फलभागिनी॥ ¨
कुजाकार्किदिनेऽहिवरुणाग्निभे ।
(बृहत्पाराशर, स्त्रीजातक, 44)

‘यहाँ वार क्रम में मंगल, रवि, शनि व श्लेषा, शरतभिषा व कृत्तिका का कथन है।
यवन जातक से उद्धृत श्लोक में नक्षत्र तो पाराशर क्रम में ही हैं, लेकिन वारों का क्रम भिन्न (शनि, मंगल, सूर्य) है-

भद्रातिथिर्यदाश्लेषा शरतभिः कृत्तिका तथा।
मन्दाररविवारेषु विषकन्या प्रजायते॥
(यवनजातक)

अतः हमारे विचार से भद्रा तिथियों में उक्त वार नक्षत्रों का किसी भी कम से योग हो तो विष योग बनेगा।

लेकिन विशेषतया श्लोक 2 में बताया क्रम हो तो वह विशेष फलदायक अवाचित होता होगा, तभी तो गणेश कवि ने उक्त क्रम दिया है। अन्यथा द्वितीय श्लोकोक्त योगों में भी क्रम भंग अन्यत्र देखने में आता है-

द्वादशी वारुणं सूर्ये विशाख सप्तमी कुजे ।
मन्दे श्लेषा द्वितीया च विषकन्या प्रसूयते॥
(यवनजातक)

यहाँ शतभिषा नक्षत्र को रविवार के साथ कहा है, जबकि प्रस्तुत जातकालंकार में शतभिषा को मंगल व सप्तमी के साथ कहा गया है। जातक तत्त्व में भी यवनजातक वाला क्रम अपनाया गया है। अंतः बहुमत
सिद्ध होने में यवनजातक का मत ही अधिक समीचीन होना चाहिए।

ज्योतिस्तत्त्व में मुकुन्द दैवज्ञ ने भी यवनजातक वाला क्रम ही श्लोक 2 के सन्दर्भ में बताया है-

वार्कौ व्याले चेद् द्वितीया ततोऽर्के
द्वादश्यां द्वीशक्क्षमारे शतक्क्षम्।
सप्तम्यां वा….॥

(ज्योतिस्तत्त्वम्, प्रकरण 15.110)

अब जातकालंकार के इन श्लोकों में ग्रह योग जन्य विषकन्या योगों का विचार करते हैं। श्लोक सं. 1 के तृतीय, चतुर्थ चरण में बताए गए योग की व्याख्या में प्राचीन टीकाकारों ने अलग सरणि अपनाई है। उनके मत में लग्न में दो शुभ ग्रह, दशम में एक पाप ग्रह और दो पाप ग्रह षष्ठ (शत्रु भाव) में स्थित हों, तब योग बनता है। ऐसा पं. हरभानु की संस्कृत टीका में कहा गया
है। प्रचलित हिन्दी टीकाओं में इसी टीका का अन्धानुकरण किया गया है ।

हमारे विचार से लग्न में दो ग्रह (एक पाप व एक शुभ) पड़े हों और अन्य दो पाप ग्रह अपने निसर्ग शत्रु या अधिशत्रु की राशि में पड़े हों तो उक्त योग बनेगा। षष्ठ भाव का अर्थ भी लिया जा सकता है। श्लोक में प्रोक्त अशुभगगनगः’ का अर्थ लोगों ने ‘अशुभ ग्रह गगन (दशम) में गया हो’ कर
दिया है। भला अशुभ यदि कर्ता होगा तो ‘अशुभः गगनगः’ कहा जाएगा। तब सन्धि होकर द्वन्द्व भी भंग हो जाएगा। यह सब गणेश कवि की ही करामात है। वास्तव में ‘अशुभ’ विशेषण है और गगनगः शब्द का अर्थ ग्रह ही है। अतः यहाँ दशम भाव की बात कहीं भी नहीं है। लेकिन लग्न में कहीं-कहीं पर दो शुभ ग्रहों की स्थिति मानी गई है। शत्रु क्षेत्री ग्रह शुभ हों या पाप इसका स्पष्टीकरण गणेश दैवज्ञ ने नहीं किया है।

हमने इस अंश का जो अर्थ लिखा है वह प्राचीन ग्रन्थों पर आधारित है। पाराशर शास्त्र में कहा गया है-

शुभोऽशुभश्च तनुगोऽशुभावरिगृहास्थितौ ।
यदीय जन्मसमये सा कुमारी विषाभिधा॥
(बृह. पारा., वही)

किसी संस्करण में ‘द्वौ पापौ शत्रुभस्थितौ’ कहा गया है । अर्थात् लग्न में शुभ पाप दो ग्रह, षष्ठ या शत्रुक्षेत्र में दो पापग्रह हों तो वह कुमारी विषकन्या होती है।

बृहत्पाराशर के पाठान्तर होने से त्रैलोक्यप्रकाश का यह स्पष्ट उद्धरण
देखिए-

‘रिपुक्षेत्रे स्थितौ द्वौ तु लग्ने यत्र शुभग्रहौ ।
क्रूरश्चैकस्तदा जातः भवेत् स्त्री विषकन्यका॥

मुहूर्त गणपति में भी लगभग यही बात कही गई है। अतः हमारे विचार से यहाँ दशम भाव का तो कोई प्रसंग है ही नहीं, फिर लग्नगत दो ग्रह ( एक शुभ, एक पाप) अथवा लग्न में दो शुभ ग्रह व एक पाप ग्रह’ हो । शेष दो पाप ग्रह शत्रुक्षेत्री हों तो विषकन्या योग होगा।

यदि यहाँ ‘षष्ठभाव’ का अर्थ अभिप्रेत होता तो बार-बार रिपुगृह, वैरिक्षेत्र, रिपुक्षेत्र, अरिगृह क्यों कहना पड़ता। केवल रिपौ और अरौ कहने भर से ही षष्ठभाव का अर्थ आ जाता, जैसे ‘तनौ अर्थात् लग्न में। फिर भी षष्ठभाव को हम गौण रूप में स्वीकार कर सकते हैं। कारण यह है कि यहाँ सू. मं. श. ये तीन पाप ग्रह गृहीत हैं। राहु की मैत्री होती नहीं। अतः वह शत्रुक्षेतरी कैसे होगा? कल्पना कीजिए षष्ठ में मंगल है तो भाग्य स्थान को, द्वादश स्थान को व लग्न को पूर्ण दृष्टि से देखकर पाप प्रभाव देगा। यदि शनि षष्ठस्थ हुआ तो अष्टम (पति की मृत्यु) स्थान पर, द्वादश (आत्महानि) व तृतीय (अनिष्ट) को पूर्ण दृष्टि से देखेगा। जो भी पाप ग्रह लग्न में रहेगा वह सप्तम को भी
प्रभावित करेगा। अतः षष्ठ भाव को भी परखा जा सकता है।

श्लोक सं. 2 में बताया गया योग पाराशर होरा में नहीं मिलता है। लेकिन उसमें कोई विवाद नहीं है।

लग्ने शनैश्चरो यस्याः सुतेऽको नवमे कुजः ।
विषाख्या सापि नोदवाह्या विविधाविषकन्यका॥
(मुहूर्त गणपति)

लग्ने सौरी रविः पुत्रे धर्मस्थो धरणिसुतः ।
अस्मिन् योगे तु जाता स्त्री सा भवेद् विषकन्यका॥
(योगजातक)

ये दोनों उद्धरण जातकालंकार के सम्बन्धित प्रकरण से पूरा मेल खाते
हैं। अतः यह योग निर्विवाद है।

विषकन्या योग का परिहार
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लग्नादिन्दोः शुभो वा यदि मदनपतिद्घूनयायी विषाख्या
दोषं चैवानपत्यं तदनु च नियतं हन्ति वैधव्यदोषम् ।
इत्थं ज्ञेयं ग्रहज्ञैः सुमतिभिरखिलं योगजातं ग्रहाणा-
मार्यैरार्यानुमत्या मतमिह गदितं जातके जातकानाम् ॥3॥

यदि लग्न या चन्द्रमा से सप्तम स्थान में सप्तमेश स्वयं स्थित हो अथवा लग्न चन्द्र से सप्तम में शुभ ग्रह स्थित हों तो विषकन्या दोष की शान्ति हो जाती है। तब कन्या निःसन्तानता व वैधव्य दोष से रहित हो जाती है । इस प्रकार मैंने (गणेश कवि) आर्यों की अनुमति के अनुसार अर्थात् पूर्व
विद्वानों के मत के आधार पर यह योगादि विवेचन किया है। विद्वान् लोग बुद्धिपूर्वक इस प्रकार फलादेश करें।

विषकन्या दोष का प्रभाव बहुत व्यापक होता है। यदि संयोगवशात् तिथि जन्य व ग्रह जन्य योग एक साथ किसी की कुण्डली में हों तो बहुत भयंकर परिणाम होते हैं। प्रायः विषकन्या मातृकुल व पति कुल-दोनों ही स्थानों पर व्याधात करने वाली होती है।
लेकिन लग्न से सप्तमेश या चन्द्र से सप्तमेश स्वक्षेत्री, बली हो अथवा सप्तम स्थानों में शुभ प्रभाव खूब हो तो यह योग कट जाता है। पाराशर होरा में कहा गया है-

सप्तमेशः शुभो वापि सप्तमे लग्नतोऽथवा ।
चन्द्रतो वा विषं योगं विनिहन्ति न संशयः॥
(पाराशर होरा)

यह स्थिति केवल विषकन्या दोष का ही परिहार नहीं करती अधिक फलित ग्रन्थों में प्रोक्त अन्य निःसन्तान योगों या वैधव्य योगों का भी परिहार करती है। कहा गया है-

‘लग्नाद् विधोर्वा यदि जन्मकाले,
शुभग्रहो वा मदनाधिपश्च ।
यूनस्थितो हन्त्यनपत्यदोषं,
वैधव्यदोषं च विषांगनाख्यम् ॥
(होरारत्नम)

ऐसी कन्या की कुण्डली में यदि परिहार न भी मिले तो पहले वह सावित्री का व्रत करती रहे, फिर वटवृक्ष या कुम्भ या नारायण विवाह करवाकर बाद में चिरजीवी योगों वाले वर से विवाह करे।

अब एक शंका हमारे मस्तिष्क में आ रही है। जब मंगलीक दोष दोनों की कुण्डलियों में हो सकता है तो क्या विषकन्या योगों में यदि ‘विषपुत्र’ हो जाए तो क्या दोनों का विवाह परम शुभ होगा, जैसाकि मंगलीक योग में होता है-

‘यस्मिन् योगे समुत्पन्ना पतिं हन्ति कुमारिका।
तस्मिन् योगे समुत्पन्नो पत्नीं हन्ति नरोऽपि च॥¨

(पाराशर होरा, वही)

जिन तिथि वार नक्षत्रों के विशेष समन्वय में उत्पन्न कन्या विष कन्या होगी, तब उन दिनों लड़का न पैदा हो, ऐसी कोई व्यवस्था तो इस संसार में नहीं है, तब वह पुत्र ‘विषपुत्र’ होगा। यदि दोनों समान प्रकार के वर कन्या का मेल हो तो शुभ होगा या नहीं? इस विषय में जिज्ञासु पाठक प्रयत्नपूर्वक परीक्षा करें। क्योंकि पराशर ने उक्त श्लोक में मंगलीक योग का नाम नहीं लिया है। अतः विषकन्या योग का यह भी एक परिहार हो सकता है।

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