जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से ज्योतिष और आध्यात्म…….

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से ज्योतिष और आध्यात्म…….



भारतीय संस्कृति में मानव-जीवन आनन्द और शान्ति की प्राप्तिके लिये है।ऋषि-मुनियों ने जीवन को
ऐहलौकिक और पारलौकिक दो भागों में विभक्त किया है। मानव के जीवनकाल में भौतिक सुख-शान्ति के लिये हमारे यहाँ अनेक शास्त्र हैं-
(१) आयुर्वेद,
(२) ज्योतिष,
(३) योगशास्त्र,
(४) वास्तुशास्त्र एवं
(५)
शिल्प-कला आदि।

अध्यात्म में-
(१) वेदान्त,
(२) न्याय,
(३) सांख्य,
(४) योगदर्शन आदि हैं।

मानव अपने जीवन-यापन तथा सुख-शान्ति के लिये शुभ एवं अशुभ कर्म करता है। कर्मों से ही उसका भाग्य (प्रारब्ध) का योग बनता है। जीवन में सुख-दु:ख का, अनुकूलता-प्रतिकूलता का एवं वर्तमान तथा भविष्य का
ज्ञान ज्योतिष शास्त्र से होता है।

ज्योतिषशास्त्र वेद का चक्षु (नेत्र) है। इस शास्त्र का उद्देश्य जीवन को अध्यात्म की ओर लगाना है। ज्योतिष शास्त्र व्यावहारिक जीवन को दर्शित करने का शास्त्र है। इससे
प्रारब्ध की जानकारी होती है तथा यह जीवन को अग्रसर करने की प्रेरणा देता है, सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है और जीवन के भूत-भविष्य को प्रदर्शित करता है।

काल भगवान को कहते हैं-

‘कालः कलयतामहम्।’

सृष्टि का सृजन, पालन एवं संहार काल भगवान् करते हैं। काल ही पल, घड़ी, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग और मन्वन्तर आदि के रूपमें है। काल एक
अनिर्वचनीय तत्त्व है। हम जिस जगत में रहते हैं, उसके नियामक कालरूप सूर्य ही हैं। सूर्य ही ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्र मण्डल की सृष्टिकर उसे गतिशील एवं प्रकाशित
करते हैं।
यह सौरमण्डल ही जीवों के कर्म का साक्षी है। ज्योतिषशास्त्र में इन्हीं सौरमण्डल के ग्रह, नक्षत्रों तथा राशि-समुहों और पृथ्वी के जीवों के परस्पर सम्बन्ध एवं परस्पर पड़ने वाले प्रभावों का विवेचन है। हमारी दैनिकचर्या, दिन-रात, पक्ष-मास तथा वर्षादि के काल का ज्ञान ज्योतिष शास्त्र से ही होता है। दिन, नक्षत्र, मास, सूर्योदय,
सूर्यास्त आदि इसी शास्त्र से होते हैं। जीवन में यज्ञोपवीत, विवाह, नामकरण आदि संस्कार एवं यज्ञ-दानादिकर्म, यात्रा तथा देव-प्रतिष्ठा आदि इसी शास्त्र से निर्दिष्ट होते
हैं। सृष्टि-रहस्य और क्रम, भूगर्भ स्थिति, मौसम-विज्ञान आदिका ज्ञान भी इससे ही होता है। सृष्टिका सृजन-पालन एवं संहारका क्रम चलता रहता है, जिसे
कालचक्र कहते हैं। भौतिक जीवन का उद्देश्य अध्यात्म-जीवनकी प्राप्ति
करना है। हमारे जीवन में अनुकूलता एवं प्रतिकूलता की जानकारी ज्योतिषशास्त्र से होती है तथा उसका निराकरण भी ज्योतिष ही बतलाता है जैसे किसी व्यक्ति के अरिष्ट का योग है तो उसका उपाय महामृत्युंजय का अनुष्ठान तथा दान आदि करना ज्योतिषशास्त्र बतलाता है।

सृष्टिके सृजन-पालन और प्रलय-इन सभी
अवस्थाओं में परमात्मा सदा समान रूप से रहते हैं, सृष्टि में जो वैशिष्ट्य है, वह सब परमात्माका ही है। गीता में भगवान्
स्वयं इस बातको निम्न वचनों द्वारा निर्दिष्ट करते हैं-

‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’, ‘नक्षत्राणामहं शशी’,
‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।’
‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’ ‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।’ ‘यदादित्यगतं तेजो जगद्भा सयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि

  • मामकम्॥’ जिस प्रकार वृक्ष के मूल को जल से सींचने पर शाखा, पत्ते, फल, फल सब तप्त हो जाते हैं. उसी प्रकार भगवान की उपासना (भजन) से सम्पूर्ण जगत् तृप्त हो जाता है

यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृष्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्टणमच्युतेज्या॥

मानवको चाहिये कि वह अपने जीवन में भगवान की मुख्यता रखे एवं उनकी आराधना करता रहे, अपने इष्ट देव के अनुसार भगवन्नाम-जप, संकीर्तन, भगवद्ध्यान, भगवद्-विग्रह-दर्शन, भक्तोंकी तथा भगवान की कथा का श्रवण, भगवद्गुणानुवाद करता रहे, सत्य बोले, संयम रखे, भगवान्-गुरुजनों-माता-पिता तथा पूज्यजनों को प्रणाम करे, उनका सदा सम्मान करे। इस दैवीचर्या से ग्रह-नक्षत्रादि सभी स्वयं उसके अनुकूल हो जाते हैं।नमस्कार करने से सब पाप-ताप मिट जाते हैं। आयु बढ़ जाती है। विद्या आती है। अहंकार दूर होता है। मार्कण्डेय ऋषि की आयु नमस्कार करने मात्र से बढ़ गयी तथा वे चिरंजीवी हो गये। दान करने से सब
आपदाएँ मिट जाती हैं।

‘प्रगट चारि पद धर्म के कलि अं
महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करड़ प्र
कल्यान ।

भगवत् प्रार्थना से कौरवों की सभा में भगवान ने द्रौपदी की लाज रखी। गजेन्द्रको ग्राह से बचाया। सबका निष्काम भाव से हित करने से सब संकट दूर होकर
भगवत प्राप्ति हो जाती है।

‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव
सर्वभूतहिते रताः।’

सर्वदेवमयी गौकी सेवा से हृदयरोग, शारीरिक दौर्बल्य आदि रोग मिट जाते हैं। शंकरभगवान् पर एवं सूर्य-भगवान पर जल चढ़ाने से सभी ग्रह-बाधाएँ, रोग तथा
आपदाएँ मिट जाती हैं। रामेश्वर यात्रा में प्यासे मरते हुए गधे को गंगाजल पिलाने से एकनाथ जी को वहीं रामेश्वर भगवान् ने दर्शन दे दिये। हिमाचल प्रदेशमें एक
गरीब किसान ने गंगायात्रा करने के विचार से धन कमाकर एकत्रित किया। पड़ोसी की कन्या बीमार हो गयी थी। किसान ने यात्रा न करके वह पैसा कन्या की चिकित्सा के
लिये लगाया। गंगाजी ने किसानकी यात्रा सफल मानकर उसको वहीं दर्शन दे दिया। श्रीहनुमान् जी की उपासना करने से सब संकट दूर होते हैं-

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै॥
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

कोणार्क का सूर्य मन्दिर राजाने सूर्योपासना से शरीर का कुष्ठ रोग ठीक होनेपर निर्माण करवाया। माता-पिता की सेवा से भगवान् प्रसन्न होकर पण्ढरपुर में पुण्डरीक भक्त के
लिये एक ईंटपर खड़े हैं। सन्त श्री तुलसीदास जी महाराज ने एक मुर्देको।
रामनाम के प्रभाव से जीवित कर दिया।

तुलसी मुआ मंगाय के सिर पर धरिया हाथ।
मैं तो कछु जानू नहीं तुम जानो रघुनाथ।।

भायें कभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।
उलटा नामु जपत जगु जाना।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे राम।।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।

सीथल ग्राम बीकानेर जिले में पूज्य सन्त
श्रीहरिरामदास जी के शरीर त्याग देने पर शिष्यों ने भगवान से प्रार्थना की तो वे पुनः उसी शरीर में आये और महोत्सव-
पर्यन्त जीवित रहे। भगवान् कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम् सर्वथा
समर्थ हैं। अत: भगवान् के भजन से सब संकट, रोग आदि मिट जाते हैं-सन्तोंने कहा है-

सब ही कूँ डर काल का निडर न दीसै कोय।
हरिया, जा। डर नहीं, राम सनेही होय॥

करता जो कायम करे तो कुण मारण हार।
जन हरिया करतार बिन और न को आधार ॥

सिर ऊपर साहिब खड़ा समरथ राम दयाल।
रामदास सांसो तजो कदै न व्यापै काल॥

श्वांस श्वांस दम दम बिचै रक्षक राम दयाल।
रामा राम उचारतां कदै न व्यापै काल॥

अत: मानव को भगवान् का भजन, परोपकार एवं सदाचार का पालन करना चाहिये, जिससे वह सदा सुखी
रहे, आनन्दित रहे।

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे॥
जीवमात्र भगवत्स्मरण,

व्यक्ति भगवन्नाम संकीर्तन,भगवत् प्रणाम
आदि से जन्म-मरण रूपी संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। अपवित्र-पवित्र-कैसी भी अवस्था में जो भगवान् का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर से शुद्ध हो जाता है-

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

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