जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गंगा सप्तमी विशेष माँ गंगा जन्म की कथा……

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गंगा सप्तमी विशेष माँ गंगा जन्म की कथा……



हिन्दू संस्कृति की आस्था की आधार स्वरूपा माँ गंगा की उत्पति के बारे में अनेक मान्यताये हैं। हिन्दूओ की आस्था का केंद्र गंगा एक मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी के कमंडल से माँ गंगा का जन्म हुआ।

एक अन्य मान्यता के अनुसार गंगा श्री विष्णु जी के चरणों से अवतरित हुई। जिसका पृथ्वी पर अवतरण राजा सगर के साठ हजार पुत्रो का उद्दार करने के लिए इनके वंशज राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ हुए। राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजो का उद्धार करने के लिए पहले माँ गंगा को प्रसन्न किया उसके बाद भगवान शंकर की कठोर आराधना कर नदियों में श्रेष्ठ गंगा को पृथ्वी पर उतरा व व अंत में माँ गंगा भागीरथ के पीछे – पीछे कपिल मुनि के आश्रम में गई एवं देवनदी गंगा का स्पर्श होते ही भागीरथ के पूर्वजो [ राजा सगर के साठ हजार पुत्रो ] का उद्धार हुआ।

एक अन्य कथा श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्धानुसार राजा बलि ने तिन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान वामन का बायाँ चरण ब्रह्मांड के ऊपर चला गया। वहाँ ब्रह्माजी के द्वारा भगवान के चरण धोने के बाद जों जलधारा थी , वह उनके चरणों को स्पर्श करती हुई चार भागो में विभक्त हो गई।

सीता👉 पूर्व दिशा
अलकनंदा👉 दक्षिण
चक्षु👉 पश्चिम
भद्रा👉 उत्तर

विन्ध्यगिरी के उत्तरी भागो में इसे भागीरथी गंगा के नाम से जाना जाता हैं। भारतीय साहित्य में देवनदी गंगा के उत्पत्ति की दो तिथिया बताई जाती हैं।

प्रथम – बैशाख मास शुक्ल पक्ष तृतीया
दिव्तीय – ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की गंगा दशमी
गंगा जल का स्पर्श होते ही सारे पाप क्षण भर में धुल जाते हैं। देवनदी गंगा जिनके दर्शन मात्र से ही सारे पाप धुल जाते हैं क्यों की गंगा जी भगवान के उन चरण कमलो से निकली हैं जिनके शरण में जाने से सारे क्लेश मिट जाते हैं।

गंगा सप्तमी पूजा विधि

इस दिन ब्रम्ह मुहूर्त में गंगा स्नान का बहुत महत्त्व माना गया है। परंतु जो लोग गंगा स्नान के लिए जाने में असमर्थ है वो लोग प्रातः काल या अपनी सुविधा अनुसार घ्र में ही उत्तर दिशा में मुह करके स्नान के जल में गंगा जल मिलाकर माँ गंगा का स्मरण करते निम मंत्र का जप करते हुए स्नान करें।

मंत्र👉 गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु।।

इसके बाद घर में ही उत्तर दिशा में एक लाल कपड़े पर गंगा जल मिले कलश की स्थापना करें। “ऊँ गंगायै नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए जल में थोड़ा सा गाय का दुध, रोली, चावल, शक्कर, इत्र एवं शहद मिलाएं। अब कलश में अशोक या फिर आम के 5-7 पत्ते डालकर उस पर एक पानी वाला नारियल रख दें। अब उक्त कलश का पंचोपचार पूजन करें। गाय के घी का दीपक, चंदन की सुगंधित धूप, लाल कनेर के फूल, लाल चंदन, ऋतुफल एवं गुड़ का भोग लगावें।

उपरोक्त विधि से पूजन करने के बाद माँ गंगा के इस मंत्र- “ऊँ गं गंगायै हरवल्लभायै नमः” का 108 बार जप जरूर करें।

इस दिन अपने सभी तरह के दुखों एवं पापों से मुक्ति पाने के लिए अपने ऊपर से 7 लाल मिर्ची बहते हुये जल में प्रवाहित करने का प्रयास अवश्य करें।

वाल्मीकि रामायण अनुसार ऋषि विश्वामित्र द्वारा कही गई मा गंगा जन्म की विस्तृत कथा

पौराणिक शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मां गंगा स्वर्ग लोक से शिवशंकर की जटाओं में पहुंची थी। इसलिए इस दिन को गंगा सप्तमी के रूप में मनाया जाता है। जिस दिन गंगा जी की उत्पत्ति हुई वह दिन गंगा जयंती (वैशाख शुक्ल सप्तमी) और जिस दिन गंगाजी पृथ्वी पर अवतरित हुई वह दिन ‘गंगा दशहरा’ (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) के नाम से जाना जाता है। इस दिन मां गंगा का पूजन किया जाता है।

गंगा सप्तमी के अवसर पर्व पर मां गंगा में डुबकी लगाने से मनुष्य के सभी पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। वैसे तो गंगा स्नान का अपना अलग ही महत्व है, लेकिन इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से दस पापों का हरण होकर अंत में मुक्ति मिलती है।

ऋषि विश्वामित्र ने इस प्रकार कथा सुनाना आरम्भ किया, “पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। उसकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।”

विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, “गे भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?” इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, “महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। जब उनके इस विचार की सूचना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ। देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करत हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी।

“वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति थी जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।

उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।

राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, “गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।” राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, ” राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल पर है इसलिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो। पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। उन्होंने देखा कपिलदेव आँखें बन्द किये बैठे हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया।

“जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था।

मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी! मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये। यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।”

थोड़ा रुककर ऋषि विश्वामित्र कहा, “महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे। अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और उनका स्वर्गवास हो गया। इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये। पर उन्हें भी मनवांछित फल नहीं मिला। भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।

“भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। गंगा के इस वेगपूर्ण अवतरण से उनका अहंकार शिव जी से छुपा न रहा। महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं। इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी।

माँ गंगा स्तोत्र हिंदी अनुवाद सहित

देवि! सुरेश्वरि! भगवति! गंगे!
त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे। शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥1 ॥

हे देवी! सुरेश्वरी! भगवती गंगे! आप तीनों लोकों को तारने वाली हैं। शुद्ध तरंगों से युक्त, महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हे मां! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलों में केंद्रित है।

भागीरथीसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥

हे मां भागीरथी! आप सुख प्रदान करने वाली हो। आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गाई है। मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हूं। हे कृपामयी माता! आप मेरी रक्षा करें।

हरिपदपाद्यतरंगिणी गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे।
दूरीकुरुमम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥

हे देवी! आपका जल श्री हरि के चरणामृत के समान है। आपकी तरंगें बर्फ, चंद्रमा और मोतियों के समान धवल हैं। कृपया मेरे सभी पापों को नष्ट कीजिए और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिए।

तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम्।
मातर्गंग त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥

हे माता! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पाता है। हे मां गंगे! यमराज भी आपके भक्तों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये !
पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ 5 ॥

हे जाह्नवी गंगे! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है। आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो। आप पतितों का उद्धार करने वाली हो। तीनों लोकों में आप धन्य हो।

कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके।
पारावारविहारिणिगंगे विमुखयुवति कृततरलापंगे॥ 6 ॥

हे मां! आप अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो। आपको प्रणाम करने वालों को शोक नहीं करना पड़ता। हे गंगे! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो, जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है।

तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे। ॥ 7 ॥

हे मां! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। हे जाह्नवी! आपकी महिमा अपार है। आप अपने भक्तों के समस्त कलुषों को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो।

पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ 8 ॥

हे जाह्नवी! आप करुणा से परिपूर्ण हो। आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तों को विशुद्ध कर देती हो। आपके चरण देवराज इंद्र के मुकुट के मणियों से सुशोभित हैं। शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता प्रदान करती हो।

रोंगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम्।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ 9 ॥

हे भगवती! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा का हार हो,हे देवी! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है।।

अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ 10 ॥

हे गंगे! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं। हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत हे परमानंद स्वरूपिणी! आपके तट पर निवास करने वाले वैकुंठ में निवास करने वालों की तरह ही सम्मानित हैं।

वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥

हे देवी! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना अथवा आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना।

भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगा स्तवमिमममलं नित्यं पठति नरे यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥

हे ब्रह्मांड की स्वामिनी! आप हमें विशुद्ध करें। जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है, वह निश्चित ही सफल होता है।

येषां हृदये गंभक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥

जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है। उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं। यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है।

गंगा स्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥

भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें विशुद्ध कर हमें वांछित फल प्रदान करे।

श्री गँगा चालीसा हिंदी अनुवाद सहित
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।। स्तुति ।।
मात शैल्सुतास पत्नी ससुधाश्रंगार धरावली ।
स्वर्गारोहण जैजयंती भक्तीं भागीरथी प्रार्थये।।

॥ दोहा ॥

जय जय जय जग पावनी, जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंग॥

समस्त जगत में पवित्र मानी जाने वाली, देवताओं के लिए भी पूजनीय हे गंगा मैया आपकी जय हो, जय हो। आपकी बहती और उछलती हुई तेज धाराएं अद्वीतीय नजारा बनाती हैं, भगवान शिव की जटाओं में निवास करने वाली हे गंगा मैया आपकी जय हो।

॥चौपाई॥

जय जय जननी हरण अघखानी। आनंद करनी गंगा महारानी।।
जय भगीरथी सुरसरि माता। कलिमल मूल दलिनी विख्याता।।
जय जय जहानु सुता अघ हननी। भीष्म की माता जग जननी।।
धवल कमल दल मम तनु साजे। लखी शत शरद चंद्र छवि लाजै।।
वाहन मकर विमल शुची सोहें। अमिया कलश कर लखी मन मोहें।।
जडित रत्न कंचन आभूषण। हिय मणि हार, हरानितम दूषण।।
जग पावनी त्रय ताप नसावनी। तरल तरंग तुंग मन भावनी ।

अपने भक्तों को पापों से मुक्ति दिलाकार, सुख प्रदान करने वाली, नदियों में महारानी हे गंगा मैया आपकी जय हो, महारानी माता आपकी जय हो। हे भागीरथी देवलोक में प्रवाहित होने वाली जगत का पालन करने वाली आपकी जय हो, आप ही इस कलयुग में समस्त पापों को धोने के लिए विख्यात हैं प्रसिद्ध हैं। हे जहानु पुत्री पापों का हरण करने वाली, भीष्म पितामह को जन्म देने वाली जग जननी माता आपकी जय हो, जय हो। हे गंगा मैया आप श्वेत कमल की पंखुड़ियों के समान सुंदर हैं, आपकी सुंदरता को देखकर तो शरद ऋतु के सैंकड़ों चंद्रमा भी शरमां जांए। आपका वाहन पवित्र मगरमच्छ भी आपकी शोभा को बढा रहा है, तो वहीं आपके हाथों में अमृत-कलश भी आकर्षित करता है। आपके सोने के आभूषणों में कीमती रत्न जुड़े हुए हैं व आपके वक्षस्थल पर मणियों का हार भी दाग व दोष रहित है। हे समस्त जगत में पवित्र व प्राणि मात्र के तीनों तापों (आधिभौतिक- सांसारिक वस्तुओं/जीवों से प्राप्त कष्ट, आधिदैविक- दैविक शक्तियों द्वारा दिया गया कष्ट या पूर्व जन्म में किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट, एवं आध्यात्मिक- अज्ञानजनित कष्ट) का नास करने वाली। आपकी उछलती हुई तेज प्रवाह से बहती लहरें भी मनभावनी हैं।

जो गणपति अति पूज्य प्रधान। तिहूँ ते प्रथम गंगा अस्नाना।।
ब्रम्हा कमंडल वासिनी देवी। श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि।।
साठी सहस्त्र सागर सुत तारयो। गंगा सागर तीरथ धारयो।।
अगम तरंग उठ्यो मन भावन। लखी तीरथ हरिद्वार सुहावन।।
तीरथ राज प्रयाग अक्षयवट। धरयो मातु पुनि काशी करवट।।
धनी धनी सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी। तारनी अमित पितर पद पीढ़ी।।

जिस प्रकाश देवताओं में सबसे पहले भगवान श्री गणेश की पूजा होती है, उसी प्रकार हे गंगा मैया सारे तीर्थ स्थलों में सबसे पहले आपके स्नान की मान्यता है। हे देवी आप भगवान श्री ब्रह्मा के कमंडल में वास करने वाली हैं। ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु के पैर धोकर जो पानी एकत्र किया आप उसी का रुप हो। आपने ही राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को मोक्ष प्रदान किया और गंगा सागर तीर्थ को अस्तित्व में लायीं आपकी आगे की और उठती हुई तरंगे मन को मोह लेती हैं। आपको देखकर ही हरिद्वार तीर्थ सुहावना लगता है। आपने ही प्रयाग को अक्षयवट (प्रयाग स्थित प्राचीन बरगद का पेड़ जिसके बारे में मान्यता है कि यह कभी नष्ट नहीं होगा) के समान अमर व तीर्थों का राजा होने के गौरव प्रदान किया, फिर आपने काशी की और रुख किया। कहने का अभिप्राय है गंगा जी के किनारे पर अनेक तीर्थ स्थलों का विकास हुआ। देवता भी आपको स्वर्ग की सीढ़ी मानते हैं, हे गंगा मैया आप धन्य हैं। आप पीढ़ियों से असंतुष्ट पितरों की आत्मा को शांत कर उन्हें मुक्ति दिलाती हैं।

भागीरथ तप कियो उपारा। दियो ब्रह्मा तव सुरसरि धारा।।
जब जग जननी चल्यो हहराई। शम्भु जटा महं रह्यो समाई।।
वर्ष पर्यंत गंगा महारानी। रहीं शम्भू के जटा भुलानी।।
मुनि भागीरथ शम्भुहीं ध्यायो। तब इक बूंद जटा से पायो।।

भागीरथ ने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की तब जाकर उन्होंनें आपकी धारा को उनके साथ भेजा। हे जग जननी जब आप अपने वेग से चली तो आपके वेग को सहना पृथ्वी के बस का नहीं था, इसलिए भगवान शिव ने अपनी जटाओं में आपको समा लिया। चूंकि आपमें उस समय अहंकार भी आ गया था क्योंकि आप स्वर्ग को छोड़ना नहीं चाहती थी, इसलिए हे नदियों की महारानी गंगा आपको एक साल तक भगवान शिव की जटाओं में उलझे रहना पड़ा। भागीरथी ने फिर से भगवान शिव की स्तुति की जिसके बाद भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर आपके वेग को कम करते हुए आपको अपनी जटाओं से मुक्त किया।

ताते मातु भई त्रय धारा। मृत्यु लोक नभ अरु पातारा।।
गईं पाताल प्रभावती नामा। मन्दाकिनी गई गगन ललामा।।
मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी। कलिमल हरनी अगम जग पावनि।।
धनि मइया तब महिमा भारी। धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी।।
मातु प्रभवति धनि मन्दाकिनी। धनि सुर सरित सकल भयनासिनी।।

भगवान शिव की जटाओं से मुक्त होने के बाद गंगा माता वहां से तीन धारा में बह चली जो मृत्यु लोक, आकाश व पाताल लोक की ओर प्रवाहित हुई। पाताल लोक में आपका नाम प्रभावती तो आकाश में मंदाकिनी व मृत्यु लोक यानि पृथ्वी पर जाह्नवी के रुप में जानी गई, यहां आप कलयुग में विश्व को पापों से मुक्त कर पवित्र करती हो। हे मैया आपकी महिमा अपरमपार हैं, आप धन्य हैं जो इस कलियुग में धर्म की धुरी बनकर पापों का विनाश करती हो। हे पाताल में प्रवाहित होने वाली प्रभावती व आकाश में बहने वाली मंदाकिनी माता आप धन्य हैं। सारे डरों को नष्ट करने वाली देव नदी गंगा आप धन्य हैं।

पान करत निर्मल गंगा जल। पावत मन इच्छित अनंत फल।।
पुरव जन्म पुण्य जब जागत। तबहीं ध्यान गंगा महँ लागत।।
जई पगु सुरसरी हेतु उठावही। तई जगि अश्वमेघ फल पावहि।।
महा पतित जिन कहू न तारे। तिन तारे इक नाम तिहारे।।
शत योजन हूँ से जो ध्यावहिं। निशचाई विष्णु लोक पद पावहीं।।

आपके पवित्र जल का पान करते ही प्राणी मात्र की हर इच्छा पूरी होती है। यदि मनुष्य ने पूर्वजन्म में कोई पुण्य किया हो तो ही उसका ध्यान आपकी भक्ति में लगता है। हे माता आपकी और रखा गया एक एक कदम अश्वमेघ यज्ञ के समान फलदायक होता है। जिन महापापियों को कहीं से भी मुक्ति नहीं मिली ऐसे महापापी भी आपके नाम के सहारे अमरता को पा गए। सैंकड़ों योजन दूरी से भी जो आपका ध्यान लगाता है उसकी भगवान विष्णु के लोक में जगह निश्चित है अर्थात उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, उसे मोक्ष मिलता है।

नाम भजत अगणित अघ नाशै। विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशे।।
जिमी धन मूल धर्मं अरु दाना। धर्मं मूल गँगाजल पाना।।
तब गुन गुणन करत दुःख भाजत। गृह गृह सम्पति सुमति विराजत।।
गंगहि नेम सहित नित ध्यावत। दुर्जनहूँ सज्जन पद पावत।।
बुद्धिहीन विद्या बल पावै। रोगी रोग मुक्तझ हो जावै।।
गंगा गंगा जो नर कहहीं। भूखा नंगा कबँहु न रहहि।।
निकसत ही मुख गंगा माई। श्रवण दाबी यम चलहिं पराई।।

हे गंगा मैया आपमें इतनी शक्ति है कि आपके नाम का भजन करने से, अनगिनत पापों का नाश हो जाता है। अज्ञानता का अंधेरा दूर होकर पवित्र ज्ञान व बल बुद्धि से मन प्रकाशित हो जाता है। जिसके लिए धर्म और दान ही धन संपत्ति हैं अर्थात जो धर्म व दान में आस्था रखते हैं, उनके लिए गंगाजल का पान भी धर्म के समान है। आपके पवित्र जल को ग्रहण करके जब आपका गुणगान किया जाता है तो सारे दुख दूर भागने लगते हैं, और घर-घर में संपत्ति व अच्छी बुद्धि विराजमान होती हैं। गंगा को नियम सहित जो ध्याता है अर्थात ध्यान लगाता है तो बूरे से बूरे आदमी को भी अच्छा पद मिलता है। बुद्धिहीन विद्या बल को पा लेते हैं, रोगी रोग से मुक्त हो जाते हैं, गंगा के नाम को जो लोग जपते रहते हैं वे कभी भी भूखे या वस्त्रहीन नहीं रहते। यदि अंतिम समय में भी यदि किसी के मुख से गंगा माई निकलता है तो यमराज भी अपने कान दबोच कर वहां से परे चला जाते है।

महं अघिन अधमन कहं तारे। भए नरका के बंद किवारें॥
जो नर जपी गंग शत नामा। सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा॥
सब सुख भोग परम पद पावहीं। आवागमन रहित ह्वै जावहीं॥
धनि मइया सुरसरि सुख दैनि। धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी॥

जिन अधम पापियों के लिए नरक तक के दरवाजे बंद थे ऐसे-ऐसे पापी भी आपके सहारे भवसागर से पार हो गए अर्थात मोक्ष पा गए। जिसने भी गंगा के सौ नामों को जपा, उसके सारे काम सारी सिद्धियां पूरी हुई हैं। उन्होंनें सारे सुख भोग कर परम पद को पाया व जीवन मृत्यु के चक्कर से उसका पिछा छूट जाता है वह आवागमन रहित हो जाता है। सुख दात्री गंगा मैया आप अन्य हैं हे तीरथ राज त्रिवेणी आप धन्य हैं।

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा। सुन्दरदास गंगा कर दासा॥
जो यह पढ़े गंगा चालीसा। मिली भक्ति अविरल वागीसा॥

दुर्वासा ऋषि के ककरा ग्राम का निवासी सुंदर दास भी गंगा मैया आपका दास है। जो भी इस गंगा चालीसा का पाठ करता है उसे आपकी भक्ति प्राप्त होती है व निरंतर आपका आशीर्वचन मिलता रहता है।

॥दोहा॥

नित नए सुख सम्पति लहैं। धरें गंगा का ध्यान।।
अंत समाई सुर पुर बसल। सदर बैठी विमान।।
सम्वत भुज नभ दिशि, राम जन्‍म दिन चैत्र।।
पुरण चालीसा किया, हरि भक्तन हित नैत्र।।

जो गंगा मैया का ध्यान धरते हैं उन्हें हर रोज नई खुशियां व संपत्ती प्राप्त होती है। वह अंतिम समय में आदरपूर्वक विमान में बैठकर देवलोक में निवास करता है।
यह चालीसा को भक्तों के कल्याण के लिए संवत भुज नभ दिशि (इसका अर्थ यानि वर्ष सपष्ट नहीं है, लेकिन एक जगह पर विक्रमी संवत 2010 माना गया है) में चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की नवमी को संपन्न हुआ इस दिन भगवान श्री राम का जन्मदिन मनाया जाता है इसलिए इसे राम नवमी भी कहा जाता है। अत: संवत का वर्ष जो भी रहा हो लेकिन माह चैत्र और तिथि शुक्ल पक्ष की नवमी को इस चालीसा के लिखने का कार्य पूरा हुआ यह निश्चित है।

आरती श्री माता गंगाजी
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ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।
जो नर तुमको ध्याता, मनवांछित फल पाता॥
ॐ जय गंगे माता॥

चन्द्र-सी ज्योति तुम्हारी, जल निर्मल आता।
शरण पड़े जो तेरी, सो नर तर जाता॥
ॐ जय गंगे माता॥

पुत्र सगर के तारे, सब जग को ज्ञाता।
कृपा दृष्टि हो तुम्हारी, त्रिभुवन सुख दाता॥
ॐ जय गंगे माता॥

एक बार जो प्राणी, शरण तेरी आता।
यम की त्रास मिटाकर, परमगति पाता॥
ॐ जय गंगे माता॥

आरती मातु तुम्हारी, जो नर नित गाता।
सेवक वही सहज में, मुक्ति को पाता॥
ॐ जय गंगे माता॥
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