पण्डित चंद्रशेखर आजाद शहादत दिवस विशेष………

पण्डित चंद्रशेखर आजाद शहादत दिवस विशेष………

भारत अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद का कर्जदार है जिन्होंने आज के दिन खुद को गोली मारकर अपने प्राण देश के लिए त्याग दिए थे। वतन के लिए सर्वस्य न्यौछावर करने वाले व भारत को अंग्रेजों की गुलाम बेडियों से मुक्त कराने में अपना पूरा जीवन खपाने वाले क्रान्तिकारियों की शहादत को याद रखना हर भारतवासी का कर्तव्य है। हिंदुस्तान की खुशहाली के लिए 27 फरवरी को आज ही के दिन चन्द्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों के साथ लड़ते-लड़ते अपने प्राण की आहूति दे दी थी। ऐसे बलिदानियों को भूलने का मतलब अपराध करना है। इसी को ध्यान में रखते हुए दो साल पहले केंद्र सरकार ने ‘याद करो कुर्बानी’ नाम के एक कार्यक्रम की शुरुआत की थी, जिसका उद्देश्य उन शहीदों को याद करना और उन्हें श्रद्धांजलि देना है जिन्हें या तो भुला दिया गया है अथवा जिनके बारे में लोगों को पता ही नहीं है। ऐसे कार्यक्रमों का स्वागत करना चाहिए, लेकिन ज्यादातर कागजों में ही किए जाते हैं ऐसे प्रोग्राम! चंद्रशेखर आजाद की कुर्बानी का देश कभी कर्ज नहीं भूला सकता है। देश की आजादी में बलिदान देने वाले लोगों के परिजन आज दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं। आजाद के वंशज पंडित सुजीत आजाद कहते हैं कि उनका परिवार हाशिए पर है। कोई नहीं पूछता। पंडित सुजीत बताते हैं कि किसी सरकारी कार्यालय में अपना कोई काम कराने जाते हैं तो अपना परिचय जब शहीद चंद्रशेखर आजाद से बताते हैं तो बाबू लोग उपहास उड़ाते हैं। पंडित आजाद ने देश को सब कुछ दे दिया। वह दिन कोई नहीं भूल सकता जिस दिन आजाद ने लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिए उस अंग्रेज अधिकारी को मारने का प्लान बनाया था। 17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह और राजगुरु ने संध्या के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को जा घेरा। जैसे ही जेपी सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकला, पहली गोली राजगुरु ने दाग दी, जो साडंर्स के मस्तक पर लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर पड़ा। भगतसिंह ने आगे बढ़कर चार-छह गोलियां और दागकर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने पीछा किया तो चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे ठेर कर दिया। इसके बाद पुरे लाहौर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए कि लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला आजाद ने सांडर्स को मारकर ले लियाहै। समस्त भारत में क्रान्तिकारियों के इस कदम को सराहा गया। इस घटना के बाद समस्त क्रान्तिकारियों में आजाद का नाम गूंजने लगा। अंग्रेजों ने आजाद को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए पांच हजार का ईनाम घोषित कर दिया। अंग्रेज आजाद को पकड़ने के लिए पागल हो गए थे। लेकिन अंत तक उनके हत्थे नहीं आए। बलिदानियों के परिवारजनों के अलावा देशवासियों के भीतर भी पीड़ा है कि देश की आजादी में भाग लेने वाले कई लोगों का भूला दिया है। उनका स्मरण होना चाहिए, उन्हें याद किया जाना चाहिए। एक सच्चाई शीशे की तरह साफ है और वह यह है कि कुछ मुठ्ठी भर नाम छोड़कर हजारों स्वतंत्रता सेनानियों को इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिली। यहां हमारा आशय उन आंदोलनकारियों से बिल्कुल नहीं है जो महात्मा गांधी और उनके साथियों के नेतृत्व में देश के लिए लड़ मिटने को तैयार होकर निकले थे। अविभाजित भारत में आजादी के हजारों ऐसे दीवाने हुए जिन्होंने कांग्रेस के साथ या उससे अलग आजादी का बिगुल बजाया। चंद्रशेखर आजाद ने उस वक्त युवाओं की एक फौज अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार की थी। लेकिन कुछ भारतवासी उस समय उनका विरोध कर रहे थे। ये वह लोग थे जिन्हे अंग्रेजों की गुलामी पसंद थी। सोच बदलने वाली सियासत उस वक्त भी हावी थी। चंद्रशेखर आजाद भी उस वक्त सियासत के शिकार हुए थे। उनकी लोकप्रियता कुछ लोगों को खटक रही थी। आजाद को ठिकाने लगाने के लिए एक मुखबिर ने पुलिस को सूचना दी कि चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। वह 27 फरवरी, 1931 का दिन था। चन्द्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार-विमर्श कर रहे थे। मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक नाटबाबर ने आजाद को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में चारो ओर से घेर लिया। तुम कौन हो कहने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना नाटबाबर ने अपनी गोली आजाद पर छोड़ दी। नाटबाबर की गोली चन्द्रशेखर आजाद की टांग में जा घूसी। लेकिन वीर योद्वा आजाद ने हिम्मत दिखाते हुए घिसटकर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी गोली दूसरे वृक्ष की ओट में छिपे हुए नाटबाबर के ऊपर फायर किया, आजाद का निशाना सही लगा और उनकी गोली ने नाटबाबर की कलाई तोड़ दी। एक घनी झाड़ी के पीछे सी.आई.डी. इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह छिपा हुआ था, उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आजाद को एक गाली दे दी। गाली को सुनकर आजाद को क्रोध आया। जिस दिशा से गाली की आवाज आई थी, उस दिशा में आजाद ने अपनी गोली छोड़ दी। निशाना इतना सही लगा कि आजाद की गोली ने विश्वेश्वरसिंह का जबड़ा तोड़ दिया। दोनों ओर से गोलीबारी हो रही थी। इसी बीच आजाद ने अपने साथी सुखदेवराज को वहां से भगा दिया। पुलिस की कई गोलियां आजाद के शरीर में समा गईं। उनके माउजर में केवल एक अंतिम गोली बची थी। उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूंगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है। अपनी कनपटी से माउजर की नली लगाकर उन्होंने आखिरी गोली स्वयं पर ही चला दी। गोली घातक सिद्ध हुई और उनका प्राणांत हो गया। इस घटना में चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु हो गई। चंद्रशेखर आजाद के शहीद होने का समाचार जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को प्राप्त हुआ। उन्होंने ही कांग्रेसी नेताओं और देशभक्तों को यह समाचार बताया। श्मशान घाट से आजाद की अस्थियां लेकर एक जुलूस निकला। इलाहाबाद की मुख्य सड़कें अवरुद्ध हो गयीं, ऐसा लग रहा था मानो सारा देश अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़ा है। इसके साथ ही एक युग के अध्याय का अंत हो गया।

जंगे आजादी के महानायक पण्डित चन्द्रशेखर आजाद जी को सत् सत् नमन्

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