धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से गुरु (वृहस्पति) ग्रह के द्वारा होने वाले रोग…….
गुरु एक आकाश तत्वीय ग्रह है। गुरु का हमारे शरीर में चरबी, उदर, यकृत, त्रिदोष में विशेषकर कफ पर तथा रक्त वाहिनियों पर अधिकार रहता है। गुरु को ज्योतिष में संतानकारक ग्रह माना गया है। जिनकी पत्रिकाओं में गुरु शुभ स्थिति में होता है, वह जातक सदैव इन रोगों से दूर रहता है। वह अच्छे विचार का, शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट तथा मानसिक रूप से बहुत बली होता है। पत्रिका में गुरु यदि पापी अथवा किसी पाप ग्रह से पीड़ित हो तो जातक इन रोगों के अतिरिक्त कर्ण व दंत रोग, अस्थि मज्जा में विकार, वायु विकार, अचानक मूर्छा आ जाना, ज्वार, आंतो की शल्य क्रिया, रक्त विकार के साथ मानसिक कष्ट तथा ऊंचे स्थान से गिरने का भय होता
न इन रोगों के साधारणतः गुरु के 4-6-8 अथवा 12वें भाव में होने पर गोचरवश इन भावों में आने पर ही होने की सम्भावना अधिक होती है। इसके साथ ही ऐसा भी आप न समझें कि यदि आपकी पत्रिका में गुरु पापी है तो यही रोग होंगे। रोगों में मुख्य बात यह भी होती है कि गुरु किस भाव
किस राशि में स्थित है ? यहा पर हम पत्रिका में गुरु किस राशि में होने पर
की सम्भावना अधिक होती है, इसकी चर्चा करेंगे। आप अपनी पत्रिका में पापी होने पर तुरन्त ही इस निर्णय पर न पहुंच जायें कि आपको यह रोग दोगा आप किसी भी निष्कर्ष पर जाने से पहले अपनी पत्रिका में अन्य योग अवश्य ही होगा।
मेष राशि-
में गुरु के होने पर जातक को शिरो रोग अधिक होते हैं। यदि इस योग में गुरु पर मंगल अथवा केतू की दृष्टि हो तो किसी दुर्घटना में सिर में बड़ी चोट का योग बन सकता है।
वृषभ राशि-
में गुरु के प्रभाव से जातक को मुख, कण्ठ, श्वसन तंत्रिका तथा
आहार नली में संक्रमण का भय होता है। यदि गुरु लग्न में इस राशि में हो तो व्यक्ति
के जीवनसाथी को मूत्र संस्थान का संक्रमण तथा स्वयं को उदर विकार की सम्भावना होती है। गुरु के पीड़ित अवस्था में ही यह रोग होते हैं, लेकिन मेरे अनुभव में गुरु पीड़ित हो अथवा नहीं, लेकिन इस राशि में वह वाणी विकार के साथ मुख रोग अवश्य देता है।
मिथुन राशि-
में गुरु व्यक्ति के कंधों व बांहों पर अधिक कष्ट देता है। बुध भी यदि पीड़ित हो तो त्वचा विकार तथा रक्त विकार का योग अधिक बन जाता है। यदि गुरु अथवा बुध पर कोई पाप ग्रह का प्रभाव हो तो जातक के 32वें वर्ष में किसी
दुर्घटना में हाथ कटने का योग भी बन जाता है। यहां पर गुरु का बहुत ही अधिक
पीड़ित तथा बुध का लग्नेश न होने पर ही यह योग घटित होता है।
कर्क राशि-
में गुरु के होने पर जातक को फेफड़ों के रोग, छाती तथा पाचन
क्रिया पर असर आता है। मैंने देखा है कि यदि गुरु अधिक पीड़ित हो तथा चन्द्र के
साथ चतुर्थ भाव व उसका स्वामी भी पीड़ित हो तो जातक कम आयु से ही रक्तचाप का रोगी तथा हृदयाघात का योग अवश्य बनता है। यदि लग्न भी कर्क ही हो तो जातक मानसिक कष्ट अधिक पाता है। उसे खाने-पीने के मामले में सावधानी रखनी चाहिये। अगर केवल चन्द्र व गुरु ही पीड़ित हों तो जातक को गर्मी के मौसम में शरीर में पानी की कमी के कारण कुछ समय अस्पताल में बिताना पड़ता है। इसलिये ऐसे जातकों को गर्मी के मौसम में पानी का सेवन अधिक करना चाहिये अन्यथा उसको गर्मी के कारण अचानक मूर्छा आ सकती है।
सिंह राशि-
में यदि गुरु है तो जातक को उदर विकार के साथ हृदयाघात का भी भय रहता है तथा गर्मी में ऐसे जातक को भी उपरोक्त समस्या आ सकती।
कन्या राशि- में गुरु के होने पर व्यक्ति आंतों के संक्रमण तथा पेट में जलन से अधिक परेशान रहता है। यदि मंगल की दृष्टि हो तो जातक को आंतों की भी
क्रिया अथवा अपेन्डिक्स जैसे आपरेशन भी हो सकते हैं। यदि गुरु के साथ शुक्र भी
विराजमान हो तो नपुंसकता अथवा शीघ्रपतन का भय रहता है। यदि शनि की दृष्टि आये तो भी यह रोग तो होना ही है।
तुला राशि-
में गुरु मूत्र विकार, जनन अंग, गुदा रोग तथा कमर के दर्द
परेशान करता है। जातक को शीघ्रपतन का रोग अधिक होता है। यहां पर मेरा अनुभव
है कि इस राशि में गुरु यह रोग देता अवश्य है लेकिन अधिक बली होने की स्थिति में, गुरु यदि सामान्य बली है तो यह रोग कम होते हैं । अगर लग्न भी तुला है तो फिर
गुरु जितना कम बली होगा, जातक के लिये उतना ही अच्छा है। यदि किसी
उपरोक्त स्थिति में रोग हो तो वह किसी के भी कहने से गुरु रत्न को धारण न करे
अन्यथा इन रोगों को तो बल मिलेगा ही साथ ही अस्थि भंग का भी योग निर्मित होगा। इस स्थिति में गुरु को पूजा-पाठ से शान्त करना उचित होता है, क्योंकि इस लग्न में गुरु जितना अधिक कमजोर होगा, जातक को उतना ही अधिक लाभ मिलेगा।
वृश्चिक राशि-
में गुरु के होने पर व्यक्ति का पाचन संस्थान खराब रहता है। मुख्यत: कब्ज अधिक होती है। खट्टी डकार, आहार नली में जलन भी रहती है। गुदा रोग भी अधिक होते हैं। गुदा रोग भी कब्ज के ही कारण होते हैं। यदि मंगल की दृष्टि यहां हो तो फिर गुदा की दो बार शल्य क्रिया तो सामान्य बात है।
धनु राशि-
में गुरु कमर से निचले हिस्से में अधिक समस्या देता है जिसमें दर्द,
स्नायु विकार अथवा संधिवात जैसे रोग होते हैं। इस राशि में गुरु यदि लग्न भाव में
होता है तो समस्या और अधिक गम्भीर होती है, हालांकि गुरु यहां लग्नेश होता है
लेकिन फिर भी वह यदि किसी दुःस्थान में है तो जातक बहुत शारीरिक कष्ट उठाता
है। ऐसे जातकों को खानपान सादा तथा कम करना चाहिये।
मकर राशि-
में गुरु जातक को कमर तथा पैरों के दर्द से जीवन भर समस्या
देता है। उसे दीर्घकालीन रोग होते हैं तथा उसके घुटने तो 30 वर्ष की आयु से ही
खराब होने लगते हैं। स्नायुविकार का योग भी होता है। यदि शनि की यहां दृष्टि हो
तो रोग कम होते हैं लेकिन पीड़ा तो झेलनी ही होती है।
कुंभ राशि-
भी शनि की राशि है। गुरु के इस राशि में होने पर जातक का कमर से नीचे का हिस्सा बहुत ही कमजोर होता है। उसे उदर रोग व वायु विकार के साथ स्नायुविकार भी होता है। मैंने इस योग पर अनुभव किया है कि ऐसे जातक घुटने की समस्या से अधिक पीड़ित रहते हैं। यदि यह योग अष्टम भाव में शनि से द्रष्ट हो तो जातक को 35 वर्षायु में बायें घुटने से विकलांगता आती है।
मीन राशि-
का स्वामी स्वयं गुरु है, इसलिये इस राशि में गुरु के होने से जातक के शरीर में रोग प्रतिकारक क्षमता काफी कम होती है। वह मामूली संक्रमण में भी अधिक बीमार होता है। ऐसे जातक को उदर रोग, पाचन रस व लार का कम
निर्माण तथा थोड़ा ही भोजन करने पर अपच के साथ कण्ठ में जलन जैसी समस्या
अधिक आती है। इसलिये ऐसे जातको को भोजन अधिक चबा-चबा कर खाना
चाहिये। बीच-बीच में पानी का प्रयोग भी करना चाहिये। गुरु के लग्न भाव में होने
पर यह रोग कम होते हैं।