धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से हृदय रोग का ज्योतिष में विचार एवं उपचार …..
(भाग २)
गतांक में हमने हृदय रोग संबंधित ज्योतिषीय कारणों को जाना था आज के लेख में हृदयरोग कारक स्थान,
हृदयरो गकारक ग्रह एवं हृदय रोग के संभावित ज्योतिषीय उपचार के विषय मे चर्चा करेंगे।
हृदयरोगकारक स्थान….
हृदयरोग कारक ग्रहयोगों में कुछ के निश्चित स्थान बताये गये हैं, विचार करने पर निम्नलिखित स्थान ऐसे हैं, जिनकी स्थिति महत्त्वपूर्ण है।
१- चतुर्थ भावमें कर्क या सिंह राशि का होना।
२- पंचम भाव में कर्क या सिंहराशि का होना।
३- दशम या एकादश भाव में कर्क या सिंह राशि की स्थिति। स्थानों या ग्रहयोगोंका विचार जन्मांगचक्र, नवांशचक्र
तथा त्रिशांश-चक्रसे करना चाहिये; क्योंकि शास्त्रकार वराह कहते हैं-‘लग्ननवांशपतुल्यतनुः स्याद्””
उक्त मीमांसा के आधार पर निम्नलिखित हृदय रोग कारक स्थान प्राप्त होते हैं-
हृदयरोगकारक ग्रह….
ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में जो हृदयरोग कारक ग्रहयोग प्राप्त होते हैं, उनके आधार पर तथा प्राप्त कुण्डलियों की समीक्षा के आधार पर हृदयरोग के आरम्भ में निम्नलिखित ग्रहोंकी सर्वाधिक भूमिका दिखती है, जिसके चार प्रकार के विभाजन किये जा सकते हैं।
१- सामान्य हृदयरोगकारक-सूर्य, शनि।
२- हृदयाघातकारक-शनि, मंगल।
३- उच्च रक्तदाबकारक-मंगल, गुरु।
४- हृच्छूलकारक-राहु, शनि तथा मंगल।
हृदयरोग कारक ग्रह-दशा ‘कलौ पाराशर:’ की उक्ति के अनुसार कलियुग के लिये आचार्य पराशर के ग्रन्थों का अत्यधिक प्रचार-प्रसार तथा फलोपलब्धि है।शताधिक दशाओं की चर्चा ज्योयोतिष शास्त्र में प्राप्त होती है, किंतु आचार्य पराशर ने कहा है-
‘दशा विंशोत्तरी चात्र ग्राह्या नाष्टोत्तरी
मता।’
अर्थात् सभी नक्षत्राश्रित दशाओं में विंशोत्तरी दशा ग्रहण करनी चाहिये। यहाँ भी विंशोत्तरी दशा को ही वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक मानकर इसी के आधारपर गणना की गयी है, जिसमें अन्तर्दशा एवं प्रत्यन्तर्दशा का ग्रहण भी किया गया है।
तदनुसार जो भी ग्रह रोगकारक स्थिति बना रहा है, उसी की दशा में अधिकांश अवसरों पर रोग का प्रारम्भ देखा जा रहा है। यदि कारक ग्रह की दशा के साथ ही षष्ठेश, द्वादशेश या मारकेश की दशा की प्राप्ति हुई तो वही हृदयाघात कर मृत्यु तक प्रदान करता है। बहुधा मृत्यु तथा हृदयाघात का अनुपात शनि तथा राहु की दशा में अधिक प्राप्त होता है।
यह भी पाया गया कि चतुर्थश एवं पंच
दशा में हृदय रोग प्रारम्भ होने पर षष्ठेश, अष्टमेश द्वादशेश या मारकेश का सम्बन्ध होने पर वह घातक साबित होता है।
हृदयरोग के आरम्भ काल तथा अनिष्ट काल परिज्ञान हेतु दशाओं का ज्ञान परमावश्यक है। दशा माध्यम से रोग विर्भाव एवं तिरोभावका विचार करता
चाहिये।
हृदय रोग का उपचार….
हृदय रोग के प्रशमनार्थ सबसे पहले हमें रोगकारक ग्रह का ज्ञानकर उसके दोष प्रशमन हेतु तीनों प्रकार की ग्रहोपचार की विधि का अनुपालन करना चाहिये।
१- हृदयरोगकारक ग्रहका रत्न-धारण।
२- रोगकारक ग्रहके औषधिसे स्नान।
३- कारक ग्रहके मन्त्रका जप।
एक परम्परा आजकल चल पड़ी है कि खराब ग्रहों या जो ग्रह कष्ट दे रहा है, उसके रत्न या जप को नहीं स्वीकार किया जा रहा है; क्योंकि वह प्रसन्न होकर दुःखको बढ़ायेगा। वस्तुतः यह धारणा निर्मूल है। जब हम समस्त प्रक्रिया पूर्वाचार्यों के द्वारा लिखित ग्रन्थों के आधार पर करते हैं तो उपचार का पक्ष भी वहीं से अंगीकृत करना चाहिये। कहा भी गया है।
‘यद् ग्रहकृतं दौष्ट्यं तस्य ग्रहस्य तुष्टयै तद्रत्नं धार्यम्।’ गोविन्द दैवज्ञादि।
इसी प्रकार आचार्य वराहमिहिर कहते हैं कि- ‘ज्योतिषमागर्म शास्त्रं विप्रतिपत्तौ नहि योग्यस्माकं स्वयमेव विकल्पयितुम्’ (बृहत्संहिता ९।७)।
हृदय रोग के उपचार पर ज्योतिषीय उपचारों के अतिरिक्त बहुत सारे आध्यात्मिक तथा धार्मिक अनुष्ठान प्राप्त होते हैं, जिनके द्वारा हृदयरोग को कम अथवा नष्ट किया जा सकता है। यथा-
१- शनिके षष्ठेश तथा हृदयरोगकारक होने पर वैदिक मन्त्रका जप।
२- राहु के रोगकारक तथा चतुर्थस्थ या लग्नस्थ होने पर बीजमन्त्र का जप।
३- मंगल के कारक होने पर बीज+तान्त्रिक मन्त्र दोनों का प्रयोग सफलता के अनुपात में अधिक लाभप्रद है।
४- सूर्य के ६ठे या १२वें भावगत तथा रोगकारक होने पर वैदिक मन्त्र जप।
जो अन्य आध्यात्मिक तथा धार्मिक अनुष्ठान कुछ रोगियों पर परीक्षित हुए एवं लाभांश अनुपात जिनका अधिक रहा, वे निम्नलिखित हैं-
१- ललितास्तोत्र/सहस्रनामका दैनिक पाठ। ‘हृदये ललिता देवी’ का जप। इस दुर्गा सप्तशती के कवचमन्त्र का एक विशिष्ट सम्बन्ध हृदयके साथ है। ललितास्तोत्र का
पाठ सामान्य हृदय रोगियों तथा ऑपरेशन कराने के बाद भी लाभप्रद पाया जा रहा है।
२- आदित्यहृदय स्तोत्र का प्रतिदिन १ पाठ।
३- नृसिंहमन्त्र/पाशुपतास्त्रस्तोत्र/मन्त्रका
प्रतिदिन ११ माला जप या ११ पाठ। यदि राहु की स्थिति कहीं से ग्रहयोग में या दशा में बन रही है तो बटुकभैरव प्रयोग या महाविद्या (तन्त्र)-का प्रयोग।
४- शतचण्डीप्रयोग।
५- महामृत्युंजय या मृतसंजीवनी प्रयोग-
कपाटीय हृदयरोग तथा हृदयशूल होने पर या मारकेश की दशा आने से पूर्व सपादलक्ष महामृत्युंजय मन्त्र जप या ५४ हजार मृतसंजीवनी मन्त्र का जप एवं गुडूची+
चिचड़ा-दूर्वा+घीका दशांश हवन लाभप्रद।
६- उच्च रक्तदाब होने पर अथवा हृत्कम्प होने पर रासपंचाध्यायी। (भागवतपुराण) का पाठ तथा सूर्यसूक्त का पाठ
कल्याण कारक है।