धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से हृदय रोग का ज्योतिष शास्त्रीय निदान एवं उपचार ……

मानव-जीवनके साथ ही रोग का इतिहास भी आरम्भ होता है। रोगों से रक्षाहेतु मनुष्य ने प्रारम्भ से ही है प्रयत्न करना प्रारम्भ कर दिया तथा आज तक इसके निदान एवं उपचार हेतु वह प्रयत्न कर रहा है। जब हैजा, प्लेग. टी०बी० आदि संक्रामक रोगों से ग्रस्त होकर इनसे छुटकारा पाने के लिये विविध प्रकार का अन्वेषण हुआ तो कालान्तर में पुन: कैंसर, एड्स, डेंगू-सदृश अनेक रोग उत्पन्न हो गये, जिनके समाधान एवं उपाय हेतु आज समस्त विश्व प्रयत्नशील है। विडम्बना है कि मनुष्य
जितना ही प्राकृतिक रहस्यों को खोजने का प्रयास करता है. प्रकृति उतना ही अपना विस्तार व्यापक करती जाती है, जिसके समाधान के समस्त उपाय विश्व के लिये
नगण्य पड़ जाते हैं, इसमें मानव का असदाचार ही मुख्य हेतु प्रतीत होता है।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने जहाँ अणुवाद, परमाणुवाद को व्याख्यायित किया, अध्यात्म की गहराइयों में गोता लगाया,
सांख्य के प्रकृति एवं पुरुष से सृष्टि प्रक्रिया को जोड़ा, वहीं आकाशीय ग्रह-नक्षत्रों को बाँस की कमाची (पट्टी)-से कोसों दूर धरती पर बैठकर वेधित किया तथा उनके
धरती पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभावों को मानवजीवन के साथ जोड़कर व्याख्यायित किया। विश्व के सर्वप्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद से रोगों का परिज्ञान आरम्भ हो जाता है, जिसमें पाण्डुरोग, हृदयरोग, उदररोग एवं नेत्ररोगों की चर्चा प्राप्त होती है। पौराणिक
कथाओंमें तो विविध प्रकारके रोगोंकी चर्चा एवं उपचा रके लिये औषधि, मन्त्र, एवं तन्त्र आदि का प्रयोग प्राप्त होता है। आर्ष परम्परा में तो रोगों के विनिश्चयार्थ ज्योतिष शास्त्रीय ग्रहयोगों सहित आयुर्वेदीय परम्परा का विकास सर्वतोभावेन दर्शनीय है। पद-पदपर सुश्रुत, चरक आदि आचार्यो ने
चिकित्सार्थ तथा माधव ने निदान एवं आचार्य सुश्रुत ने अस्थि-सम्बन्धित ज्ञान एवं शल्यक्रिया की पद्धति के द्वारा रोगों के उपचार में अतुलनीय योगदान दिया। स्वास्थ्य विज्ञान के साथ ही अन्य विषयों एवं तथ्यों का जनक ज्योतिर्विज्ञान आरम्भ से ही ग्रहों के द्वारा मानव जीवनके विभिन्न पहलुओं को प्रदर्शित करता रहा है। हमारे पूर्वाचार्य दैवज्ञों ने ग्रह- प्रभावों का धरातल पर बैठकर साक्षात्कार किया तथा भौम-दिव्य एवं नाभस प्रभावों को शिष्य-परम्परा के द्वारा लिपिबद्ध कराया। आज जो भी हमारे समक्ष ज्योतिषशास्त्र के
ग्रन्थ हैं, वे प्राचीन आचार्यों के अथक परिश्रम एवं सतत अन्वेषण के परिणाम स्वरूप हैं।
ज्योतिष एवं रोग…..
ज्योतिष शास्त्र में रोग और उसकी दैवव्यपाश्रय चिकित्सा प्राप्त होती है। कफ-वात-पित्त-तीनों प्रकृतियों के
द्वारा ग्रहों का सम्बन्ध, शरीरांगों में राशियों एवं ग्रहों का विनिवेश, बालारिष्ट, आयु आदि विषयों की प्राप्ति रोग की दिशा में महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। ज्योतिष में रोगों का
वर्गीकरण, लक्षण (ग्रहयोग) तथा उपाय (उपचार)- की परिचर्चा प्राप्त होती है।
ज्योतिषशास्त्र ने ही प्रधान रूप से रोगोत्पत्ति के मूल व कारणों में ‘कर्म’ को स्वीकार किया है, इसीलिये यहाँ कर्मज एवं दोषज-दो प्रकार की व्याधियों की चर्चा प्राप्त है होती है। इनके अतिरिक्त तीसरी आगन्तुक व्याधिका भी उल्लेख प्राप्त होता है। ग्रहों के प्रकृति, धातु, रस, अंग, अवयव, स्थान, बल एवं अन्यान्य विशेषताओं के आधार पर रोग का विनिश्चय किया गया है तथा उनके निदान के उपाय भी कि
बताये गये हैं।
हृदयरोग एवं ग्रहयोग…..
मनष्य का हृदय अतीव सुकोमल एवं
सदृश है। सतत गतिमान रहने वाला हृदय।
अंगों एवं उपांगों को रक्त का आदान-प्रदान करता जिससे सभी अंग यथास्थान अपने स्वरूप में हमेशा करते रहते हैं। इसीलिये शरीर के मुख्यांग में इसकी गणना की गयी है।
हृदयरोगका इतिहास अतीव प्राचीन है।ऋग्वेद में हृदय रोग के नाशहेतु भगवान् सूर्य से प्रार्थना की गयी है। भागवत महापुराण में भी रासपंचाध्यायी के अन्त
इसकी चर्चा है। आर्षपरम्परा के ग्रन्थों में तो हृदय कारण सूर्य तथा चतुर्थ एवं पंचम भाव और कुछ दशाओं का उल्लेख किया गया है, जिसके अन्तर्गत मुख्य रूपसे सूर्य, शनि और राहुदशा पायी जाती है। कुछ निश्चित राशियों के साथ ग्रहों की दशामें भी हृदय रोग की उत्पत्ति बतायी गयी है। आचार्य पराशर ने तो दशाफलाध्याय में सर्वाधिक रोगोद्भवकारक दशाओं का विवेचन किया है।
आचार्य वराहमिहिर के दशाफलाध्याय में भी हृदयरोग की परिचर्चा प्राप्त होती है। वहाँ सूर्य को कारक रूप में स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार परवर्ती परम्परा के ग्रन्थों में भी हृदयरोग कारक ग्रहयोगों की प्राप्ति होती है। प्रमुख हृदयरोग कारक ग्रहयोग लगभग चालीस के आसपास हैं, जिनकी सम्भावना लिखित एवं प्रायोगिक
दोनों आधार पर समान रूप में प्राप्त होती है। इनमें भी तीन प्रकारके हृदयरोग कारक ग्रहयोग प्राप्त हो रहे
१- घटितयोग-वे ग्रहयोग, जो ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में लिखित हैं तथा सर्वेक्षण से प्राप्त हृदयरोग के रोगियों की कुण्डली पर पूर्णतया घटित हो रहे हैं।
२- अघटितयोग-इसके अन्तर्गत वे ग्रहयोग हैं, जिनका शास्त्र में उल्लेख है तो, परंतु प्रायोगिक कुण्डलियों पर ये कहीं घटित नहीं हो रहे हैं।
३- नूतनयोग-इसके अन्तर्गत वे ग्रहयोग आते जिनका उल्लेख ज्योतिष शास्त्रीय ग्रन्थों में नहीं दिखायी है परंतु प्रायोगिक आधार पर ये ग्रहयोग घटित हो रहे जहाँ अघटित ग्रहयोगों को छोडकर केवल घटित योगों का उल्लेख किया जा रहा, जिनकी प्राप्ति प्रायोगिक आधार पर प्रायः शतप्रतिशत रही है। ऐसे योग निम्नलिखित हैं, जिनके आधार पर जन्मांग एवं
नवांश-चक्र देखकर हृदयरोग का निर्धारण आसानी से किया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति को इस ग्रहस्थिति के कारण हृदयरोग हुआ है, चाहे होगा।
हृदयरोगकारक ग्रहयोग…..
१- चन्द्रमा यदि शत्रुगृही हो तो हृदयरोग उत्पन्न होता है। (सारावली, ४४ । १९)
२- सूर्य यदि कुम्भ राशिगत हो तो धमनी में अवरोध उत्पन्न करता है। (सारावली, २२ । ११)
३- शुक्र यदि मकर राशिगत हो तो जातक हृदयरोगी होता है। (सारावली)
४- षष्ठेश सूर्य यदि चतुर्थ भावगत हो तो जातक हृदरोगी होता है। (जातकालंकार २।१६)
५- लग्नेश निर्बल राहु यदि चतुर्थगत हो तो हृच्छूल रोग होता है। (जा०पारि० ६ । १९)
६- सूर्य यदि चतुर्थ भावगत हो तो हृदय रोग उत्पन्न करता है। (जापारि० ८।६८)
७- चन्द्रमा शत्रुक्षेत्री होने पर हृदयरोग उत्पन्न करता है। (जापारि० ८।११२)
८- तृतीयेश यदि केतु से युक्त हो तो जातक हृदयरोगी होता है। (जा० पारि० १२।३६)
९- चतुर्थभाव में पापग्रह हो और चतुर्थेश पापयुक्त हो तो हृदयरोग उत्पन्न करता है। (सर्वार्थचिन्तामणि)
१०- मकर राशिगत सूर्य सामान्य हृदय रोग उत्पन्न करता है। (जा०सारदीप)
११- सूर्य वृष राशिगत हो तो जातक हृदयरोग से ग्रस्त होता है। (हो०प्र० १०। ४४)
१२- वृश्चिक राशिगत सर्य हृदयरोग उत्पन्न करता है। (शम्भु हो०, १० । ४६)
१३- चतुर्थ भावगत षष्ठेश की युति सूर्य-शनि के साथ होनेपर हृदयरोग होता है। (जा०५० ६।११)
१४- चतुर्थगत यदि शनि. भौम, गरु हो तो हृदयरोग होता है। (होरारल)
१५- तृतीयेश राहु-केतु से युक्त हो तो हृदयाघात होता है। (ज्यो०र०)
१६- यदि शनि निर्बल शयनावस्था में हो तो भी हृदयशूल रोग होता है। (ज्यो०र०)
१७- सूर्य यदि सिंह राशिगत हो तो जातक हृदयरोग से ग्रस्त होता है। (वी०वी० रमन)
१८- शनि यदि अष्टम भावगत हो तो हृच्छूल रोग उत्पन्न करता है। (गर्गवचन)
१९- मकर राशिगत सूर्य हृदय रोग प्रदान करता है। (मू०सू० ३।२।५)
२०- राहु यदि द्वादशस्थ हो तो हृच्छूल रोग देता है। (भाव०प्र०)
२१- चतुर्थेश चतुर्थ भावगत पापयुक्त हो तो हृदयरोग देता है। (गदावली २।२३)
२२- सिंह राशि के द्वितीय द्रेष्काण में यदि जन्म हो तो हृच्छूल रोग होता है। (गदावली २। २४)
क्रमशः…
अगले लेख में हम हृदयरोग कारक स्थान,
हृदयरोगकारक ग्रह एवं हृदय रोग का संभावित ज्योतिषीय उपचार के विषय मे चर्चा करेंगे।
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