जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से धर्म और साधना में त्याग का क्या महत्व है..

धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से धर्म और साधना में त्याग का क्या महत्व है..

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥

भावार्थ:-ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान्‌ कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो।

जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़ापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इंद्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत्‌ में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम- ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञान के द्वारा जानने योग्य) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है। देखिए गीता अध्याय 13/ 7 से 11

धर्म में और साधना में त्याग का विशेष महत्व है, यदि कुछ श्रेष्ठ प्राप्त करना है तो उसके लिए हमें कुछ छोड़ना पड़ता है, ग्रहण के साथ छोड़ने से संतुलन बना रहता है, मात्र ग्रहण करना हो और उसे छोड़ना नहीं हो, ऐसा करना उचित नहीं है, हम श्वास जीवन निर्वाह के लिए लेते हैं, श्वास लेना जितना जरूरी है छोड़ना उससे कम जरूरी नहीं है, भोजन करते हैं तो विसर्जन भी जरूरी है।

वैसे ही जीवन में विकारों, कृषाय, बुराई का त्याग अनिवार्य है, पर कचरा फेंकने में हमें कोई दर्द नहीं होता क्योंकि हम जानते हैं कि इसकी हमें कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक अहम का त्याग नहीं होगा तब तक धर्म और संस्कारों का प्रवेश नहीं होगा, अब हमारी जीवन यात्रा तो शुरू हो चुकी, अब विचार यात्रा शुरू करने का समय आ गया है, हमने अपने भाव और प्रभाव का काम पूरा कर लिया, अब स्वभाव बदलने का काम करना है।

हम सब अपने जीवन में सुख चाहते हैं, पशु भी अपने लिये दु:ख नहीं चाहते, सुख और प्रसन्नता में अंतर है, कई लोग ऐसे हैं जिनके पास दु:खों का अंबार होता है, फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं, सज्जनों! परमात्मा की पूजा का सीधा संबंध मन से है, मन प्रसन्न हो तो सारी दुनिया को जीत लेना भी संभव हो जाता है, धन से सुख तो हो सकता है, प्रसन्नता नहीं मिल सकती।

आज का इंसान सिर्फ इसलिये दु:खी हैं कि उसका पड़ोसी सुखी क्यों है? समस्या जनसंख्या बढ़ने की नहीं हमारी संग्रह की प्रवृत्ति की है, हम जिन चीजों का भोग करते हैं वे हमारी जरूरत से अधिक नहीं होना चाहिये, हमारे धन का उपयोग ऐसा होना चाहिए कि उसे सब देख तो सकें लेकिन चुरा नहीं सके, त्याग आत्मा का धर्म है इसमें लेनदेन को कोई स्थान नहीं है, इसमें तो लेनदेन की व्रत्ति का त्याग है।

संसार में प्राय: दान को त्याग मान लिया जाता है पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि? जिस वस्तु का हम दान देते हें उस वस्तु के ग्रहण की हमें अनिक्षा नहीं है, हम उपयोगी जानकार वह वस्तु अन्य को भी देते हें और स्वयं भी ग्रहण करते हें, जबकि त्याग मात्र अनुपयोगी वस्तु का किया जाता है, दान को ही त्याग मानकर अपनेआपको धर्मात्मा मानने वाले दानवीरो जबाब दो? अगर यही ही उत्तम त्याग धर्म के धारी धर्मात्मा हें तो उन निर्ग्रन्थ वीतरागी संतों का क्या होगा जिनके पास देने को कोई द्रव्य है ही नहीं?

तो क्या वे धर्मात्मा ही नहीं रहेंगे? यदि आप दान देकर उत्तमत्याग धर्मधारी धर्मात्मा हो गये तो धर्म के अन्य लक्षणों का क्या होगा? धर्म के दश लक्षण तो एक साथ प्रकट होते हें, क्या यह धन (लक्ष्मी)आपकी गुलाम है, आपकी आज्ञा में है? क्या यह आपकी आज्ञा से आती और जाती है? यदि नहीं तो हम होते कौन है? इसे किसी को देने वाला या इसे ग्रहण करने वाला? एक बात और यदि धन दान देने वाला त्याग धर्म का धारी धर्मात्मा होगा तो लेने वाला क्या होगा?

चार प्रकार के दानों में धन दान नाम का कोई दान है ही नहीं पर यदि इसे दान मान भी लिया जाए तो प्रश्न है धर्मात्मा कौन? देने वाला या लेने वाला? अहारदान गृहस्थ देते हें और साधु ग्रहण करते हें, उनमें उत्तम त्याग धर्मधारी धर्मात्मा कौन है? साधु या गृहस्थ? अब भी क्या आपको लगता नहीं कि उत्तम त्याग धर्म का स्वरूप वह नहीं जो आप समझते हें, कुछ और है।

एक द्रव्य दुसरे द्रव्य का स्पर्श ही नहीं करता है तो ग्रहण और त्याग कैसे हो? यदि किसी पर द्रव्य की यहाँ से वहां हेराफेरी को उत्तम त्याग ही धर्म माना जाएगा तो धर्म पराधीन हो जायेगा, क्योंकि फिर तो दान देने के लिए धन चाहिये, आहार और औषधि देने के लिये उनका संयोग आवश्यक है, तो क्या धर्म पराधीन है? यदि धर्म ही पराधीन क्रिया होगी तो फिर धर्म के आश्रय से मुक्ति कैसे होगी? प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है और कोई एक दुसरे को स्पर्श तक नहीं करता है।

उक्त वस्तुस्वरूप को भूलकर यह आत्मा आनादिकाल से परपदार्थों के ग्रहण का राग करता रहा, और इस प्रकार धर्म से विमुख रहा, तत्वज्ञान के अभ्यास से ज्ञानीजीव द्वारा ग्रहण और त्याग दोनों ही विकल्पों को निरर्थक जानकार छोड़ना ही उत्तम त्याग धर्म है, जगत में दान को ही त्याग समझ लिया जाता है, दान और त्याग में मूलभूत अंतर यह है कि त्याग धर्म है और दान पुण्य, त्याग मुक्ति का कारण है और दान (पुन्य) बंध का कारण।

दान उपयोगी व हितकारी वस्तु का किया जाता है, अनुपयोगी व अहितकर वस्तु का नहीं, जबकि त्याग के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है, दान पराधीन क्रिया है जिसमें तीन लोग शामिल हें! दाता, लेने वाला और वस्तु, त्याग के लिए न तो लेने वाला चाहिए और न ही कोई वस्तु, त्याग तो ग्रहण के राग का किया जाता है, वह वस्तु हमारे पास होना आवश्यक नहीं, दान उपयुक्त पात्र को ही दिया जाता है, जबकि त्याग के लिए पात्र की आवश्यक्ता नहीं, त्याग के बाद दाता उक्त (वैसी ही अन्य) वस्तु का ग्रहण नहीं करता है।

दान में ऐसी कोई शर्त नहीं, दान मात्र उसी वस्तु का दिया जा सकता है जो हमारे पास हो, त्याग के लिए यह शर्त नहीं, दान देने के बाद उसके सदुपयोग पर द्रष्टि रखना दाता का कर्तव्य है, त्याग के बाद वस्तु का विकल्प आना भी अनुचित है, इसलिये सज्जनों! शास्त्रों में त्याग को दान से ज्यादा महत्व दिया गया है।

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