वर्ल्ड पॉपुलेशन डे का मकसद आबादी को नियंत्रित करना और इससे पैदा हुई समस्याओं का हल खाेजना

हेल्थ डेस्क।आज वर्ल्ड पॉपुलेशन डे है। आज से 30 साल पहले दुनिया की आबादी 500 करोड़ पहुंची थी। तभी से संयुक्त राष्ट्र ने वर्ल्ड पॉपुलेशन डे मनाने की परंपरा शुरू की थी। मकसद था, बढ़ रही आबादी को नियंत्रित करना और इससे पैदा हुई समस्याओं का हल खाेजना। तब वर्ल्ड बैंक में सीनियर डेमोग्राफर रहे केरल के केसी जकारिया के सुझाव पर 11 जुलाई को वर्ल्ड पॉपुलेशन डे शुरू हुआ था। जकारिया अब 95 साल के हो चुके हैं। उन्होंने आबादी के लिहाज से हो रहे बदलावों पर भास्कर से अपनी बात साझा की…

आज धरती पर कहीं आबादी बहुत बढ़ने और कहीं बहुत घटने का ट्रेंड दिख रहा है, जो हमें डरा रहा है। साल 1900 से पहले तक की दुनिया की सबसे बड़ी समस्या शिशु मृत्यु दर थी। तब चार में से एक ही बच्चा जीवित रह पाता था। दूसरी समस्या यह थी कि दुनिया में लोगों की औसत आयु महज 30 साल ही थी। 1900 से 1950 के बीच मेडिकल साइंस ने काफी प्रगति की। इससे बच्चों की मौतों को रोकने में तो मदद मिली। साथ ही टीबी, हैजा, प्लेग जैसी महामारियों से होने वाली मौतों पर भी नियंत्रण किया।

यह अच्छी बात थी कि एक बहुत पुरानी समस्या सुलझ रही थी, लेकिन बढ़ती आबादी की नई समस्या पैदा हाेने लगी थी। भारत ने उसी समय इस समस्या को पहचाना और आधिकारिक तौर पर 1952 में प्लानिंग कमीश्न ने बढ़ती आबादी को समस्या माना था। ऐसा करने वाला भारत पहला देश था। चीन ने समस्या के समाधान के लिए सिंगल चाइल्ड पॉलिसी शुरू की। असमानता, आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन जैसी आज की कई बड़ी राजनीतिक, आर्थिक और वैश्विक समस्याओं के पीछे भी जनसंख्या असंतुलन बड़ा कारण है। धरती का उत्तरी हिस्सा संपन्न है, लेकिन वहां आबादी की कमी एक समस्या है।

दूसरी तरफ दक्षिणी हिस्सा बढ़ती आबादी के चलते संसाधनों की कमी से जूझ रहा है। इसीलिए दुनिया में आबादी का पलायन दक्षिण से उत्तर की तरफ है। धरती पर आबादी असंतुलन की वजह से अमेरिका, यूरोप में सुनहरे बाल वाले- ब्लॉन्ड, गोरी चमड़ी और काले बाल वाले- ब्रूनेट और नीली आंखों वाले लोगों की आबादी तेजी से गिर रही है। आने वाले समय में काले, सफेद और पीले रंग के लोगों का मिश्रण इस तरह से होगा कि दुनिया में प्रमुख तौर पर लोग भूरे होंगे।

भारत के अंदर की बात करें तो यहां पलायन उत्तरी राज्यों से दक्षिणी राज्यों में हो रहा है। शादी-ब्याह के फैसले जाति-धर्म और क्षेत्र के आधार पर कम होने लगे हैं। आगे इसमें तेजी देखने को मिलेगी। मिसाल के तौर पर 15 साल पहले के अखबारों में वैवाहिक इश्तेहारों में इंटरकॉस्ट और इंटर रिलीजन के विज्ञापन नहीं होते थे। पर आज इसकी संख्या तेजी से बढ़ी है। जाति-धर्म और क्षेत्र का बंधन और कमजोर पड़ेगा।

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