जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से भगवान शिव का नाम त्रिपुरारी कैसे पड़ा

धर्म डेक्स । जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से भगवान शिव का नाम त्रिपुरारी कैसे पड़ा



प्राचीन समय में तारकासुर नाम का एक महाभयंकर दैत्य हुआ था। जिसका वध शिव पुत्र कार्तिकेय के द्वारा हुआ था. उस तारकासुर के तीन पुत्र थे. जिनका नाम तारकाक्ष, विद्युन्माली, कमलाक्ष था. वह तीनो अपने पिता की तरह शिव द्रोही नहीं थे. वह तीनो परम शिवभक्त थे. यद्यपि देवताओं ने कुमार कार्तिकेय का सहारा लेकर उनके पिता का वध करवा दिया था इसलिए वह देवताओं से घृणा करते थे।

अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए वह तीनो मेरु पर्वत पर चले गए और मेरु पर्वत की एक कंदरा में समस्त भोगो का त्याग करके ब्रह्माजी की कठिन तपस्या करने लगे. उन तीनो की हजारों वर्षो की तपस्या के बाद ब्रह्माजी उनपर प्रसन्न हुए और वहां पर प्रकट हुए. ब्रह्माने प्रसन्न होकर उन तीनों को वरदान मांगने के लिए कहा।

ब्रह्माजी की बात सुनकर वह तीन असुर बोले परमपिता ब्रह्माजी अगर आप हम पर प्रसन्न हो तो हमें यह वर दे कि हम सभी के लिए अवध्य हो जाये. हमारे जरा और रोग जैसे शत्रु सदा के लिए नष्ट हो जाए. सभी देवता हमसे पराजित हो जाए. उनकी बात सुनकर ब्रह्मा ने उनसे कहा है महान असुरो इस सृष्टि में जिसने जन्म लिया उसे मरना तो पड़ता है है. किसी को अमरता का वरदान देना मेरे सामर्थ्य की बात नहीं है. इसलिये तुम कुछ ऐसा उपाय करके वरदान मांगो जिससे मृत्यु का तुम्हारे निकट आना असंभव हो जाए।

ब्रह्मा की बात सुनकर तीनो भाई विचार में पड़ गए और बहुत सोच विचार कर ब्रह्माजी से कहा है परमपिता हम तीनो के पास ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां रहकर हम देवताओं से सुरक्षित रह सके. आप हमारे लिए ऐसे तीन नगरों का निर्माण करवाए जहां पर पहूंचना देवताओं के लिए असंभव हो. वह तीनो नगर अदृश्य होकर अंतरीक्ष में घूमते रहे. उन नगरों में सभी प्रकार की सुख सुविधा हो. उसके बाद तारकाक्ष ने सुवर्णमय नगर का, विद्युन्माली ने चांदी का और कमलाक्ष ने वज्र के सामान लोहे के नगर का ब्रह्माजी से वरदान मांगा।

वह तीनो शिवजी के परमभक्त थे इसलिए उन्होंने सोचा कि शिवजी हमारा वध कभी नहीं करेंगे. यह सोचकर उन्होंने अपनी मृत्यु का विकल्प इस प्रकार पसंद किया. उन तारकपुत्रों ने ब्रह्माजी से कहा जब चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में स्थित हो और जब पुष्करावर्त के कालमेघो को की वर्षा हो रही हो तब तीनो नगर परस्पर एक दिशा में मिले अन्यथा न मिले. ऐसा दुर्लभ संयोग हजारों वर्षो में एक बार होता है तब भगवान शिव एक दुर्लभ रथ पर चड़कर एक ही बाण से इन तीन नगरों का नाश करे तो ही हमारा वध हो।

ब्रह्माजी ने उस समय उन दैत्यों से कहा ऐसा ही होगा उसके बाद उन्होंने मय दानव जो असुरो के शिल्पी है उनका आह्वान किया और उन्हें तारकासुर के पुत्रों के लिए तीन प्रकार के भवन निर्माण करने का आदेश दिया. वह तीनो भवन वरदान के अनुसार सुवर्ण, चांदी और लोहे के बने हुए थे. उस नगरों में कैलास शिखर के समान बड़े बड़े भवन थे. उन नगरों में सभी वृक्ष कल्पवृक्ष के समान कामना को पूर्ण करने वाले थे. उन नगरो में उन तीनो भाइयों ने बहुत लंबे समय तक सुख पूर्वक निवास किया।

उन असुरों ने बहुत लंबे समय तक वहां पर शिव की भक्ति करते हुए निवास किया. वह जानते थे कि शिव उनके भक्तो का कभी अहित नहीं करते. इसलिए वह निर्भय हो गए थे. उन्होंने देवताओं को अपने प्रभाव से दग्ध कर दिया था. उनके नगरों में वेद और पुराणों की ध्वनी गूंजती रहती थी. इस कारण से उनके नगर और भी शक्तिशाली बन रहे थे. एक तरफ वह शिव भक्ति के कारण बलवान बन रहे थे तो दूसरी तरफ उन्होंने पृथ्वी पर यज्ञों, हवनो और वेदध्वनी पर प्रतिबंध रख दिया. अग्निहोत्री ब्राह्मणों की हत्या कर दी जिससे देवताओं को बल प्राप्त न हो।

पुराणों बहुत से असुर बतलाये गए जो बड़े शिव भक्त थे. रावण भी एक महान शिव भक्त था परंतु जब भगवान का भक्त ही अधर्म का कारण बन जाये तो भगवान को स्वयं अपने भक्तो का उद्धार करना पड़ता है. ऐसा ही तारक पुत्रो के साथ हुआ. सभी देवतागण ब्रह्मा और विष्णु को साथ में लेकर शिवजी की शरण में चले गए और शिवजी से तारकासुर के पुत्रों के विनाश के लिए प्राथना की. उस समय शिवजी ने देवताओं से कहा जब तक वह तीन महान दैत्य मेरे भक्त है में उनका अहित नहीं करूँगा फिर भी वह तीनो मेरी भक्ति से बलवान होकर सृष्टि में अधर्म का फैलाव कर रहे है इसलिए तुम सब मिलकर ऐसा कुछ उपाय करो कि वह तीनों मेरी भक्ति से विमुख हो जाए।

शिवजी की आज्ञा के अनुसार देवताओं का यह कार्य करने के लिए भगवान विष्णु ने एक सुंदर दिव्य स्वरूप धारण किया. वह मुनि वेश में तीनो नगरों में गए और वहां वेदों के विरुद्ध उपदेश किया. उन नगरों के असुरों को अपने वाणी से शिव भक्ति से दूर कर दिया. उस वेद विरुद्ध उपदेश से प्रभावित होकर उन नगरों की स्त्रियों ने पतिव्रत धर्म छोड़ दिया. जब वह तीनो नगर शिव भक्ति से विमुख हो गए तब पुनः देवता गण शिवजी की पास आये और उन्हें उन तीन असुरों का उनके नगर के साथ नष्ट करने के लिए प्राथना की।

उस समय शिवजी ने देवताओं से कहा यद्यपि वह तीन असुर मेरी भक्ति से विमुख हुए है परंतु एक समय था वह मेरे परम भक्त है. इसलिए में उनका विनाश क्यों करू उनका विनाश भगवान विष्णु को करना चाहिए जिन्होंने उन्हें मेरी भक्ति से विमुख किया है. उस समय सभी देवता उदास हो गए. यह देखकर ब्रह्माजी ने शिवजी से कहा है प्रभु आप हम सब के राजा है. भगवान विष्णु आप के युवराज है और में आप का पुरोहित हूँ. यह सब देवता आप की प्रजा है जो आप की शरण में आई है. मेरे वरदान के अनुसार उन तीन असुर आप के आलावा सभी के लिए अवध्य है. इसलिए हम सब की रक्षा करे और उन असुरों का वध करे।

ब्रह्मा की बात सुनकर शिवजी ने मुस्कराते हुए कहा आप मुझे राजा कह रहे है परंतु मेरे पास कोई ऐसा रथ नहीं जो राजा के पास होता है और न ही मेरे पास कोई राजा के योग्य शस्त्र है. में उनका विनाश कैसे करू. उस समय ब्रह्माजी की आज्ञा से शिवजी से लिए एक दिव्य रथ का निर्माण करवाया गया. वह रथ सोने का बना हुआ था. उसके दाहिने चक्र में सूर्य और बाएं चक्र में चंद्रमा विद्यमान थे. अंतरीक्ष उस रथ का ऊपर का भाग था और मंदराचल उस रथ का बैठने का स्थान था. ब्रह्माजी उस रथ के सारथि बने. हिमालय से धनुष बनाया गया और वासुकी को प्रत्यंचा बनाया गया. भगवान विष्णु उस धनुष के बाण और अग्नि उस बाण की नोक बने. वेद उस रथ के अश्व बन गए. संसार में जो भी कुछ तत्व तह वह सभी उस रथ में मौजूद थे।

उस समय ब्रह्माजी ने भगवान शिव से रथ पर सवार होने के लिए प्राथना की. शिव के सवार होते ही वह रथ शिव के भार से निचे झुक गया. वेदरूपी अश्व शिवजी का भार सहन न कर पाए और जमीन पर बैठ गए. सबको लगा कोई भूकंप आ गया है. उस समय नंदी जी वहां पर उपस्थित हुए और उस रथ के निचे जाकर शिवजी के भार को स्वयं सहन करने लगे. वह भी बड़ी मुश्किल से शिवजी की कृपा से शिवजी का भार सहन कर सके।

उस समय भगवान शिव की आज्ञा से सभी देवतागण पशुभाव में स्थित हो गए. भगवान शिव उनके अधिपति हुए इसलिए उन्हें पशुपति भी कहा जाता है. उसके बाद ब्रह्मा ने उस रथ को हांकना शुरू किया परंतु वह रथ आगे नहीं बढ़ा तब शिव की आज्ञा से सभी देवताओं ने विघ्न को दुर करने वाले गणनायक गणपति से प्राथना की और वह रथ आगे बढ़ने लगा।

उसके बाद जब भगवान शिव ने अपना रौद्र स्वरूप धारण किया. उस समय संयोग वश वह तीनो नगर एक ही रेखा में बने हुए थे. शिव ने वह हिमालय स्वरूप धनुष पर विष्णु स्वरूप बाण का संधान किया. बाण के संधान करते ही शिवजी के क्रोध से प्रभावित होकर वह तीनो नगर जलने लगे. शिवजी के उस महान धनुष के द्वारा एक ही बाण में तारकासुर के तीनो पुत्रो का संहार हो गया. शिवजी की कृपा से उन तीनो असुरों को मोक्ष की प्राप्ति हुई. देवताओं का कार्य भी सिद्ध हुआ. उन तीन नगर में जो लोग शिव की भक्ति से विमुख नहीं हुए थे उनकी शिवजी ने रक्षा की. इस तरह भगवान शिव ने तारकासुर के तीनो पुतोर्ण का अंत किया और त्रिपुरारी कहलाये।

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