धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से शनिदेव पौराणिक, वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण में (विस्तृत विवरण)…....
नवग्रह में शनि ऐसे ग्रह हैं जिसके प्रभाव से कोई व्यक्ति नहीं बचा है। ऐसा व्यक्ति तलाश करना असम्भव है जो शनि से डरता न हो। कुछ वर्ष पहले तक प्रत्येक व्यक्ति
इनका नाम लेने से भी घबराता था परन्तु कुछ समय से इनकी पूजा- अर्चना बहुत ही
अच्छे स्तर पर होने लगी है। आज व्यक्ति इनकी महिमा को समझने लगा है। उसके
मन से इनका भय समाप्त हो रहा है। मैं सभी को यह परामर्श देता हूं कि किसी को भी शनिदेव से भयभीत होने की आवश्यकता नंहीं है। आप केवल अपने कर्म पर विश्वास रखें, बाकी का सब कुछ शनिदेव पर छोड़ दें। मेरा विश्वास है कि यदि आपके इस जन्म के व पिछले जन्म के कर्म अच्छे हैं तो आपको अवश्य ही शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त होगा क्योंकि आपके पिछले जन्म के कर्मों के प्रभाव से आपकी पत्रिका में शनिदेव की स्थिति अनुकूल होगी। इस अनुकूल स्थिति
में आपको अवश्य ही शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त होगा पिछला जन्म किसी ने नहीं जाना है, इसलिये यदि आपकी पत्रिका में शनि की स्थिति अनुकूल नहीं है तो फिर आप इस जन्म में अच्छे कर्म करके शनिदेव को अपने अनुकूल कर सकते हैं। मेरे अनुभव व ज्योतिषीय ग्रंथों के अनुसार शनिदेव इस संसार के मुख्य न्यायाधीश हैं। भगवान शिव ने उन्हें यह जिम्मेदारी सोंपी है। इनकी अदालत में अपील की सुविधा है अर्थात् यदि आपसे कोई अपराध हुआ है तो आप अपना अपराध स्वीकार कर केवल जुर्माना भरकर अर्थात् पूजा-अर्चना व दान-धर्म करके शनिदेव का अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं। आप अफवाहों एवं अनर्गल बातों पर न जायें क्योंकि कुछ स्वयंभू ज्ञानियों ने जनमानस में शनिदेव का भय बैठा रखा है, जबकि शनिदेव जैसा ग्रह कोई भी नहीं है। यदि आप पाप कर रहे हैं तो शनिदेव आपसे सब कुछ छीनने में पल भर की देरी नहीं करेंगे। यदि आप अच्छे व धार्मिक कर्म में लीन हैं तो फिर वह आपको राजा बनाने में भी विलम्ब नहीं करेंगे। शनिदेव यह नहीं कहते कि आप उनकी बहुत ही पूजा-अर्चना करें तथा अपना
कर्म छोड़कर उन्हें पूजें। शनिदेव केवल यह चाहते हैं कि आप केवल उनका स्मरण
करे अर्थात् कोई भी कार्य करें तो उनका ध्यान रखें। आप उनका ध्यान रखेंगे तो फिर आपसे कोई भी गलत कार्य हो ही नहीं सकता है।
ज्योतिष के पितामह महर्षि पाराशर ने अपने ग्रन्थ वृहत्पाराशर होरा शास्त्रम्
में शनि के स्वरूप के लिये कहा है-
कृशदीर्घतनुः सौरिः पिड्गदृष्यानिलात्मकः।
रस्थूलदन्तोऽलसः पंड्गु खररोमकचो द्विजः ।।
अर्थात् शनि का शरीर दुबला-पतला तथा लम्बा कद होता है। इनके मोटे दांत,आलसी स्वभाव के साथ रंग काला होता है। रोम एवं केश तीखे व कठोर तथा सदैव। नीचे दृष्टि किये हुए होते हैं। शनिदेव वायु प्रधान व तामस प्रकृति के साथ क्षुद्रवर्ण के हैं।
पौराणिक परिचय
पौराणिक कथा के आधार पर शनिदेव का जन्म सूर्य की पत्नी छाया के ग्ई हुआ है। कहते हैं कि इनके जन्म के समय जब इनकी दृष्टि सूर्य पर पड़ी तो उन्हें कुष्ठ रोग हो गया तथा उनके सारथी अरुण पंगु हो गये थे। शनि के भाई का नाम यम तथा बहिन का नाम यमुना है। शनिदेव बचपन से ही नटखट व शरारती थे। इनकी अपने
भाई-बहिनों में से किसी से नहीं बनती थी सूर्यदेव ने सबके युवा होने पर सभी पुत्रो
को राज्य बांट दिये परन्तु शनिदेव अपने पिता के इस कृत्य से खुश नहीं थे। वह सारा राज्य स्वयं अकेले ही चलाना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्मा जी का तप आरम्भ कर दिया। जब ब्रह्मा जी शनिदेव की तपस्या से प्रसन्न हो गये तो उन्होंने शनिदेव से वर मांगले को कहा। शनिदेव ने उनसे वर मांगा कि मेरी शुभ दृष्टि जिस पर जाये उसका तो
कल्याण हो तथा जिस पर मेरी क्रूर दृष्टि जाये उसका सर्वनाश हो जाये । ब्रह्मा जी
तथास्तु कह कर अन्तर्ध्यान हो गये। इसके पश्चात् शनिदेव ने अपने सभी भाइयों का
राज-पाट छीन लिया और अकेले ही राज चलाने लगे। शनिदेव के अन्य भाई उनके
इस कृत्य से दुःखी होकर शिवजी के पास गये और सारी बात कहकर हस्तक्षेप का
निवेदन किया। इस पर शिवजी ने शनिदेव को बुला कर समझाने का प्रयास किया।
कहा कि तुम्हारे पास तो ब्रह्मा जी से प्राप्त बहुत बड़ी शक्ति है। तुम संसार में सदुपयोग करो। राज-पाट के चक्कर में क्यों समय नष्ट करते हो। शनिदेव बोले कि प्रभु मैं क्या कार्य करूं ? तब शिवजी ने शनिदेव व उनके भाई यमराज के मध्य कार्य सौंपे कि यमराज उन प्राणियों के प्राण हरेंगे जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है तथा शनिदेव संसार में लोगों को उनके कर्मों का फल देंगे। साथ ही शिवजी ने उन्हें और वर दिया कि तुम्हारी कुदृष्टि के प्रभाव से देवता भी नहीं बचेंगे तथा कलियुग में तुम्हारी अधिक महत्ता होगी। तभी से शनिदेव अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे हैं।
एक कथा के अनुसार गणेश जी का शीश भी शनिदेव की दृष्टि से अलग हुआ था। एक बार जब गणेशजी का जन्मदिन मनाया जा रहा था तब उत्सव में शनि्देव भी सम्मिलित हुए थे परन्तु वह अपनी दृष्टि नीचे की ओर किये थे। माँ पार्वती ने उनसे
कहा कि तुम्हें शायद उत्सव में खुशी नहीं है, इसलिये तुम दृष्टि नीचे किये हो। तब
शनिदेव ने कहा कि माँ ऐसी बात नहीं है, मेरी दृष्टि होने पर कोई अनर्थ न हो जायथ
इसलिये मैंने अपनी दृष्टि नीचे कर रखी है, परन्तु माँ पार्वती नहीं मानी। उन्होंने शान
को दृष्टि ऊपर करने को निवश कर दिया। उनके कहने पर जैसे ही शनिदेव ने अपनी
दृष्टि गणेशजी पर डाली, वैसे ही उनका शीश अलग हो गया।
ऐसे ही एक बार शिवजी ने कहा कि शनिदेव मैं तुम्हारी दृष्टि की परीक्षा लेना।चाहता हूँ। इसलिये तुम कल प्रातः आकर मुझ पर दृष्टिपात करना, फिर देखते हैं।
इस दृष्टि से तो आप भी नहीं बचेंगे क्योंकि यह आपका ही दिया वर है। यदि आप
तुम्हारी दृष्टि का मुझ पर क्या प्रभाव आता है। इस पर शनिदेव कहा कि हे प्रभु, मेरी
पर मेरी दृष्टि का प्रभाव नहीं आया तो फिर आपके ही वर की बदनामी होगी इस
पर शिवजी ने कहा कि देखते हैं, लेकिन अभी जैसा मैंने कहा है, वैसा ही करो। दूसरे दिन शिवजी ने पार्वती से कहा कि ऐसा कौनसा स्थान है जहां शनिदेव मुझे न खोज पायें। इस पर पार्वती ने कहा कि आपको तो वह हर स्थान पर खोज लेंगे, इसलिये
आप किसी जंगल में चले जायें। शिवजी जंगल में जाकर हाथिनी की योनि में विचरने लगे। इधर जब शनिदेव आये और माँ पावती से पूछा कि प्रभु कहां हैं तो उन्होंने अज्ञानता जताई। शनिदेव वापिस चले गये। दूसरे दिन शिवजी ने शनिदेव से कहा कि देखो तुम्हारी दृष्टि का मुझ पर कोई प्रभाव नही आया। शनिदेव ने कहा कि क्षमा करें प्रभु, आप पर तो मेरी दृष्टि का प्रभाव कल ही आ गया था, तभी तो आप मेरी दृष्टि के भय से जंगल में हाथिनी की योनि में विचरते रहे। यह मेरा अपराध है कि बिना किसी कारण के मैंने देवाधिदेव पर दृष्टिपात किया, इसलिये कलियुग में जो भी प्रातः आपके द्वादश ज्योतिर्लिंगं के नाम के उच्चारण के बाद मेरे दस नामों का उच्चारण करेगा, वह सदैव मेरा आशीर्वाद प्राप्त करेगा ।
मेरे स्वयं के अनुभव में यह आया है कि जो भी व्यक्ति द्वादश ज्योतिर्लिंग के बाद
शनिदेव के दस नाम का मानसिक उच्चारण करता है, वह पूर्ण रूप से शनिदेव का
आशीर्वाद प्राप्त करता है अर्थात् व्यक्ति पर आने वाले शनिकृत अशुभ फलों में कमी
आती है। यहां पर मेरा इस कथा का मुख्य उद्देश्य यही है कि शनिदेव की दृष्टि का
यह आशय नहीं है कि जब वह किसी को देखें तभी अशुभ फल आयेगा अपितु पत्रिका में शनि की स्थिति के अनुसार फल प्राप्त होता है।
अब जब कथा चल रही है तो मैं आपको श्री हनुमानजी व शनिदेव की कथा भी
बता देता हूँ। जब हनुमानजी ने लंका को जलाया था तब लंका काली नही हुई थी।
जब हनुमानजी लंका के कारावास में गये तो शनिदेव वहां उलटे लटके थे। तब
हनुमानजी ने उनसे पूछा कि तुम कौन हो तथा लंका जलने के बाद भी काली क्यों नहीं हो रही है? तब शनिदेव ने कहा कि मैं शनि हूँ। रावण ने मुझे योगबल के आधार पर बंद कर रखा है। यही कारण है कि लंका काली नहीं हो रही है क्योंकि में कैद हूँ तथा अग्निकाण्ड का कारक भी मैं ही हूं। इसलिये जब आप मुझे मुक्त करेंगे तो मेरी मात्र दृष्टिपात से ही लंका काली हो जायेगी। हुआ भी यही, जैसे ही हनुमानजी ने शनिदेव को मुक्त किया और शनिदेव ने लंका पर दृष्टिपात किया, वैसे ही लंका काली हो गई। हनुमानजी के द्वारा मुक्त करवाने से ऋणमुक्त होने के लिये शनिदेव ने हनुमानजी से वर मांगने को कहा। हनुमानजी ने यही कहा कि कलियुग में जो भी मेरी सेवा करे, उसे तुम अशुभ फल नहीं दोगे तब शनिदेव ने कहा कि ऐसा ही होगा। तभी से कहा जाता है कि जो व्यक्ति हनुमानजी की सेवा करता है वह शनिकृत कष्मों के मुक्त रहता है। मेरे अनुभव में यह बात किसी हद तक सही है कि हनुमानजी की सेवा से शनिकृत कष्ट पूर्ण समाप्त नहीं होते बल्कि उनमें कमी आती है क्योंकि शनिदेव भी। हनुमानजी के बहुत बड़े भक्त थे शनिदेव अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं और हनुमानजी भी अपने एक भक्त के लिये दूसरे भक्त को निराश नहीं करेंगे। हनुमान जी की सेवा से शनिकृत कष्टों में कमी अवश्य आती है लेकिन शनिदेव के पूर्ण शुभ फल। प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि शनि वचनबद्ध होने से अपने अशुभ फल में तो कमी करेंगे लेकिन शुभ फल भी नहीं देंगे।
शनिदेव को तेल प्रिय होने की यह कथा है कि एक बार शनिदेव ने अपने मद में चूर होकर हनुमानजी को युद्ध के लिये ललकारा। प्रारम्भ में तो प्रभु ने मना किया
लेकिन अधिक उकसाने पर उन्होंने शनिदेव को अपनी पूंछ में लपेट कर सारे ब्रह्माण्ड
के तीन चक्कर लगाये। तब शनिदेव का शरीर पहाड़ों से टकरा-टकरा कर छिल गया। उन्होंने प्रभु से क्षमा मांगी। तब प्रभु हनुमानजी ने शनिदेव को मुक्त किया और अपने हाथों से शनिदेव के शरीर पर आये घावों पर पीड़ा से मुक्ति के लिये सरसों का तेल लगाया। तभी से शनिदेव को सरसों का तेल प्रिय है। इस प्रकार अन्य अनेक कथायें
हैं, परन्तु यह हमारा विषय नहीं है। उपरोक्त कथायें शनिदेव को जानने के लिये आवश्यक थीं, इसलिये मैंने आपको बताई।
शनिदेव वैज्ञानिक परिचय
सौरमण्डल में शनि का स्थान एक सुन्दर ग्रह के रूप में है इसकी सूर्य से दूरी
लगभग 7800,00,000 मील है। शनि बहुत मन्द गति से भ्रमण करता है। इसी मन्द गति के कारण शनि के अन्य नामों में मन्द व शनि हैं अर्थात् शनै-शनै चलने वाला। यह सौरमण्डल का सबसे कम गति का ग्रह है । यह लगभग 30 वर्षों में सूर्य की परिक्रमा करता है अर्थात् सम्पूर्ण भचक्र (12 राशियों) का भ्रमण करने में 30 वर्ष लगाता है। सूर्य के निकट इसकी गति लगभग 60 मील प्रति घण्टा हो जाती है। शनि का व्यास 85,150 मील मतान्तर से 71,500 मील है । यह अपनी परिधि पर लगभग 6.1 अंश पर झुका हुआ है। इसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की अपेक्षा 94 गुणा अधिक है। पृथ्वी से शनि की दूरी लगभग 79,10,00,000 मील है। मतान्तर से 89,00,00,000 मील है। अब वास्तव में कुछ भी दूरी हो परन्तु शनि की गति इतनी धीमी है कि हम चाहकर भी इसका वास्तविक दूरी नहीं जान सकते हैं। शनि को सौरमण्डल का सबसे सुन्दर ग्रह माना
जाता है। शनि के चारों ओर नील, वलय व कंकण नाम के तीन वलय हैं जो शनि के
भ्रमण काल में अलग रहते हुए शनि के साथ ही भ्रमण करते हैं जिससे शनि ग्रह की सुन्दरता देखते ही बनती है। वैज्ञानिक आधार पर शनि के अतिरिक्त किसी भी ग्रह के वलय नहीं हैं। शनि के 10 चन्द्र है। अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनि सबसे हल्का ग्रह है।
की अपेक्षा अधिक ठण्डा ग्रह है तथा आकार में गुरु की अपेक्षा छोटा है।
शनिदेव सामान्य परिचय……
नवग्रहों में शनि को सेवक का पद प्राप्त है। शनि को कालपुरुष का दुःख कहा जाता है। इस संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शनि के प्रभाव से अछूता ना हो अथवा भय नहीं खाता हो। जिस प्रकार हम पत्रिका में शुक्र की स्थिति देखकर जीवन में आने व होने वाले सुखों का ज्ञान प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हम पत्रिका में शनि की स्थिति से आने वाले दुःखों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहते हैं। शनि को पश्चिम दिशा का स्वामित्व प्राप्त है। ज्योतिष में इन्हें नपुंसक लिंग का माना गया है। शनि वायु प्रधान ग्रह है। शनि के बुध, शुक्र मित्र, सूर्य, चन्द्र, मंगल शत्रु तथा गुरु सम ग्रह है। शनि के अन्य नामों में पंगु, असित, अर्किमन्द, रविज, यम, छायासुनु, कृष्णयम, छायात्मज, शनै, सूर्यपुत्र, भास्करि, कपिलाक्ष, अर्कपुत्र, तरणितनय, कोणस्थ, क्रूरलोचन, मन्द व शनैश्चराय हैं।