धर्म डेक्स। जानिये पंडित वीर विक्रम नारायण पांडेय जी से दुःख दूर करने के उपाय???
हम सभी सुखी होना चाहते हैं। कोई भी दुखी नही होना चाहता। दुःख दूर करने के उपाय जानने से पहले ये जानते हैं की दुःख क्यों आते हैं और ये कितने प्रकार के होते हैं-
दुःख तीन प्रकार के होते हैं (1) दैहिक दुःख (2) दैविक दुःख (3) भौतिक दुःख।
- दैहिक दुःख दैहिक दुःख वे होते हैं, जो शरीर को होते हैं, जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट। शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक दुःख आते हैं। इनके इलाज के लिए आप डॉक्टर के पास जा सकते हैं।
- दैविक दुःख दैविक दुःख वे कहे जाते हैं, जो मन को होते हैं, जैसे चिंता, आशंका, क्रोध, अपमान, शत्रुता, बिछोह, भय, शोक आदि। यदि आप किसी के साथ भी बुरा करते हैं तो आपका मन हमेशा इस चीज में रहेगा की आपने बुरा किया। यदि आपके साथ किसी ने बुरा किया तो आप चिंता करेंगे की हमने उसका क्या बिगाड़ा जो उसने हमारे साथ बुरा किया। किसी की मृत्यु हों गई तो आप शोक में डूब गए। कभी डर में जीते हैं। कभी मोह में कभी भय में कभी शोक में। ये सभी दैविक दुःख कहलाते हैं। इनका इलाज दुनिया के किसी भी डॉक्टर के पास नही है। केवल भगवान ही इनका इलाज करें तो करें।
- भौतिक दुःख भौतिक दुःख वे होते हैं, जो अचानक अदृश्य प्रकार से आते हैं, जैसे भूकंप, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि। इन्हीं तीन प्रकार के दुःखों की वेदना से मनुष्यों को तड़पता हुआ देखा जाता है। कहीं पर भाड़ आ गई, कहीं पर सुनामी आ गई। कहीं पर भूकम्प आ गया। कहीं गर्मी से लोग मर रहे हैं। कहीं सर्दी से लोग मर रहे हैं। ये सब भौतिक दुःख हैं। जिनसे बचा नही जा सकता है। और ये एकदम से ही आते हैं। अचानक आपको खबर ही मिलती है की ये घटित हों गया।
लेकिन एक कमाल की बात है गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इन दुखों का वर्णन किया है। लेकिन राम राज्य में इनमे से कोई भी दुःख नही आया है।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
‘रामराज्य’ में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते।
आप सोचेंगे की राम राज्य में ये सब हुआ लेकिन आज के समय तो नही होता तो इसका जवाब भी गोस्वामी जी ने दिया है। गोस्वामी जी लिखते हैं-
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥ सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥
धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगत् में परिपूर्ण हो रहा है, स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं॥
छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है॥
सभी दम्भरहित हैं, धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर और गुणवान् हैं। सभी गुणों का आदर करने वाले और पण्डित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ (दूसरे के किए हुए उपकार को मानने वाले) हैं, कपट-चतुराई (धूर्तता) किसी में नहीं है॥
श्री राम के राज्य में जड़, चेतन सारे जगत् में काल, कर्म स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते (अर्थात् इनके बंधन में कोई नहीं है)
इसके अलावा जो भी श्रीमद भगवान पुराण का आश्रय लेता है वो दैहिक,दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के तापों से बच जाता है।
दुःख क्यों आते हैं ?
दुःख चार प्रकार से आते हैं कालजन्य दुःख, कर्मजन्य दुःख, गुणजन्य दुःख और स्वभावजन्य दुःख।
कालजन्य दुःख काल का दुःख , या मृत्यु का दुःख। कई लोग डरे रहते हैं हम मर जायेंगे तो क्या होगा? हमारे बच्चो का क्या होगा? हमारे परिवार का क्या होगा? अरे भैया! ये संसार है जब तुम नही थे तब भी ये चल रहा था। अब तुम हों तो भी चल रहा है और जब तुम नही रहोगे तो भी यूँ ही चलेगा। बड़े बड़े आये और चले गए। सबको एक दिन जाना है। इसलिए इसका दुःख ना ही करो तो अच्छा है। भक्ति का आश्रय लो। क्योंकि परीक्षित जी को श्राप था की सात दिन में उसकी मृत्यु हों जाएगी। लेकिन शुकदेव जी ने जब उन्हें कथा रूपी अमृत पिलाया तो ये भी निडर हों गए।
कर्मजन्य दुःख हम जो भी जैसा भी, जिस नियत को धारण करने कर्म करते हैं वैसा ही हमें फल मिल जाता है।
श्रीमद भागवत पुराण में श्री कृष्ण अपने पिता नन्द बाबा से कहते हैं- कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणौव प्रलीयते । सुखं दुः खं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ।।
“बाबा! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता और कर्म से ही मर जाता है उसे उसके कर्मो के अनुसार ही सुख-दुख भय और मंगलके निमित्तो की प्राप्ति होती है।”
गुणजन्य दुःख गुण तीन प्रकार के होते हैं – तमोगुण, रजोगुण, सतोगुण। व्यक्ति को चाहिए जितना हों सकते सतोगुण में रहे। जल्दी क्रोध ना करे और भगवान के नाम में मस्त रहे। क्योंकि जब हम तमोगुण और सतोगुण में होते हैं। तो हमारा दिमाग ठीक से काम नही करता है। हम करना कुछ चाहते है और कुछ और ही हों जाता है। इसलिए अपने स्वभाव को जितना हों सके सतोगुण में रहने की कोशिश कीजिये। गलती खुद करते हैं फिर कह देते हैं भगवान ने किया है। अरे भैया! भगवान के पास यही काम है क्या?
दूसरा कभी कभी हम गुस्से में ऐसा काम कर जाते हैं की जिसके लिए हमें जीवन भर पछताना पड़ता है। बाद में सोचते है काश! हमने खुद को कंट्रोल कर लिया होता तो ये सब नही होता।
स्वभावजन्य दुःख कई बार हम दुखी नही होते है लेकिन हमारा स्वभाव होता है की हम दुःख में जीना चाहते हैं। जैसे किसी किसान की इस साल पांच लाख रुपैये की आमदनी हुई। किसी ने कहा अरे सेठ जी! अबकी बार आपकी फसल अच्छी बिकी है। बड़े मजे हैं अच्छे कम रहे हों।
लेकिन किसान कहता है। कहाँ अच्छे कमा रहा हु भाई। पिछले साल सारी की सारी फसल खराब हों गई थी। अबकी बार अच्छी हुई तो क्या हुआ। पिछले साल तो बहुत नुकसान हुआ ना।
कहने का मतलब उसे वर्तमान की खुशी नही है बल्कि भूतकाल का दुःख है। क्योंकि ये इंसान अपने स्वभाव से मजबूर है। इसलिए हर परिस्थिति में भगवान को धन्यवाद दीजिये चाहे आप किसी भी परिस्तिथि में क्यों ना हों।
मेरे भगवान! तेरी हम पर कृपा है। अपनी कृपा बनाये रखना
दुःख दूर करने के उपाय !!!!!
1 संसार में आप जिस भी चीज से दिल लगाओगे वहीँ से आपको दुःख उठाना पड़ेगा।
क्योंकि ये संसार दुःख का घर है। इस बात को भगवान श्री कृष्ण ने भागवत गीता में भी कहा है। यह संसार दुःखालय है। यहाँ संसार सुख की आश लगाये बैठा है लेकिन यहाँ सुख है ही नही।
फिर आप कहोगे की संसार में किसी से प्रेम ही ना करें। बाबा बन जाएँ, संत बन जाएँ। नही, बिलकुल नही। इसका केवल एक ही उपाय है। संसार में रहो लेकिन संसार को अपने अंदर ना रहने दो। जैसे पानी में नाव है। लेकिन नाव में पानी आ गया तो क्या होगा? नाव डूब जाएगी। इसलिए संसार में रहते हुए सब सम्बन्ध अच्छे से निभाइए। लेकिन किसी से कोई भी आशा मत कीजिये।
2 संसार के प्रति आशा ही दुःख का कारण है। आशा आप लगते हों और आपकी इच्छा पूरी नही होती है तो आपको दुःख होता है। इस सम्बन्ध में भगवान दत्तात्रेय और पिंगला वैश्या की कथा आती है।
इसलिए संतो ने कह दिया है- आशा एक राम जी सों, दूजी आशा छोड़ दे, नाता एक राम जी सों दूजा नाता तोड़ दे।
3. रामचरितमानस जी में श्री हनुमान जी महाराज कह रहे हैं- कह हनुमंत विपति प्रभु सोई | जब तक सुमिरन भजन न होई ||
हनुमान्जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो।
4 भीखा भूखा कोई नहीं, सबकी गठरी लाल, गठरी खोलना भूल गए, इस विधि भये कंगाल |
भीखा साहब जी लिखते हैं इस संसार के अंदर कोई गरीब नहीं है। परमपिता परमेश्वर ने हर मनुष्य के हृदय में आशीर्वाद के बहुमूल्य हीरे-मोती भरे हैं।
इस संसार में आकर मनुष्य दूसरे सभी कार्यों में फसकर जीवन गँवाता है, लेकिन अपने हृदय की हीरे-मोतियों से भरी हुई लाल गठरी खोलना भूल जाता है।
यही कारण है कि सबकुछ होते हुए भी मनुष्य कंगाल रह जाता है। कहने का मतलब यही है की हम संसार में फसे हैं। भगवान की माया नचा रही है। यदि उससे निकले तभी तो उस आनंद की ओर पहुंचेंगे।
5 गीतामें अर्जुन ने भगवान् से प्रश्न किया है कि ‘मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी बलात् किसकी प्रेरणासे पाप करता है ?’
इसपर भगवान् ने उत्तरमें कामना को ही पापका कारण बतलाया । जितने व्यक्ति जेल में पड़े हैं, जितने नरकोंकी भीषण यातना सह रहे हैं और जिनके चित्तमें शोक-उद्वेग हो रहे हैं तथा जो न चाहते हुए भी पापाचारमें प्रवृत्त होते हैं, उन सबमें कारण भीतर की कामना ही है।
संसारमें जितने भी दुःखी हैं, उन सबका कारण एक कामना ही है । कामना प्रत्येक अवस्थामें दुःखका अनुभव करती रहती है—जैसे पुत्रके न होनेपर पुत्र होनेकी लालसाका दुःख, जन्मनेपर उसके पालन-पोषण, विद्याध्ययन और विवाहादिकी चिन्ताका दुःख और मरनेपर अभावका दुःख होता है ।
कामनाके रहनेपर तो प्रत्येक हालतमें दुःखी ही होगा । अतएव जिस प्रकार आशा ही परम दुःख है, उसी प्रकार निराशा— वैराग्य ही परम सुख है । स्त्री, पुत्र, परिवार—सब आज्ञाकारी मिल जायँ, तब भी सुख नहीं होगा, सुख तो इनकी कामना के परित्याग से ही होगा ।
6 दुखिया मूवा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झुरि।
सदा अनंदी राम के, जिनि सुख दुख मेल्हे दूरि।
भावार्थ – दुखिया भी मर रहा है, और सुखिया भी एक तो अति अधिक दुःख के कारण, और दूसरा अति अधिक सुख से। किन्तु राम के जन सदा ही आनंद में रहते हैं,क्योंकि उन्होंने सुख और दुःख दोनों को दूर कर दिया है। सुख और दुःख से ऊपर जाइये। और उसआनंद(भगवान) को प्राप्त कीजिये।